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एकादश अध्याय विवेक-वैराग्य आदिको अपना मान लेता है, सेवा भी करता है। परन्तु साधक ज्यों ज्यों ऊंचे उठता जाता है; त्यों त्यों वे अपना समूह भी एकके बाद एक श्रापही छूटते जाते हैं, ऐसा उनको प्रत्यक्ष होता है। क्योंकि आदि-अन्त युक्त कुछ रहनेसे मुक्ति नहीं होती ( अर्थात् सबसे अलग हुआ नहीं जाता ), इसलिये प्रथम पराएको उत्सन्न देना होता है, प्रत्यक्ष करता है। अन्तःकरण-प्रसूत जो कुछ है, वही विकार है। इनमें भला व बुरा नहीं होता। विषय-भोग भी कामना है, फिर 'वह मुक्ति, अभी मैं पाता हूँ'-यह भी एक कामना है। कोई थोडासा पहले, कोई थोड़ासा पाश्चात् , परन्तु अद्भुत ब्रह्माग्निमें पड़कर जलजानेमें कोई भी बाकी नहीं रहता, देखता हूँ। चिदाभास, संस्कार, कर्तव्य, कामना, विवेक, वैराग्य ये सब छूट जाते हैं ॥ २६ ॥ २७॥
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति। तथा तवामी नरलोकवीराः
विशन्ति वक्ताण्यभिविज्वलन्ति ॥२८॥ ___ अन्वयः। यथा नदीनां बहवः अम्बुवेगाः ( वारिप्रवाहाः ) अभिमुखाः ( समुद्राभिमुखा सन्तः ) समुद्र एव द्रवन्ति ( प्रविशन्ति ), तथा अमी नरलोकवीराः ( मनुष्यलोकपालाः ) तव अभिविज्वलन्ति (सर्वतः प्रदीप्यमानानि) वक्त ाणि विशन्ति ।।२८।। __ अनुवाद। जैसे नदी समूहका पारि प्रवाह समुद्राभिमुख होकरके समुद्र में ही प्रवेश करता है, उसी प्रकार यह सब नरलोकवीरगण सर्वत्र प्रदीप्यमान तुम्हारे मुखसमूहमें प्रवेश करते हैं ॥ २८ ॥
व्याख्या। “नरलोकवीरा"-न-नास्ति, रं-प्रकाश, अर्थात् स्वप्रकाश और परप्रकाशकत्व जिसमें नहीं है, उसीको “नर" कहते हैं। मनुष्य जबतक त्याग और प्रहणके लोभमें पड़ा रहता है, तबतक वह "नर" है। -