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एकादश अध्याय अव्यक्त, निर्गुण पुनः गुणात्मक अवस्था ही इस जगतका आधार स्वरूप है, परन्तु वह भी तुमसे भिन्न नहीं है, पुनः भिन्नबोधके भ्रमके कारण "देव” शब्द दिया गया है । और "प्रभाषत" १-तुम जो इस प्रकार आत्मसमर्पण करके स्तुति किये बिना रह नहीं सकते, वह स्तुति ही तुम्हारा "प्रभाषण" है ॥ १४ ।।
अर्जुन उवाच पश्यामि देवास्तव देव देहे
सर्वास्तथा भूतविशेषसंघान् । ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ
मृषीश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ।। १५ ।। अन्वयः। अर्जुन: उवाच । हे देव ! तब देहे सर्वान् देवान् ( आदित्यादीन् ) तथा भूतविशेषसंघान् ( जरायुजाण्डजादीनां संघान् ) दिव्यान् ऋषीन् च (पशिष्ठादोन ), सर्वान् उरगान् च ( वासुकिप्रभतीन् , कमलासनस्थं ( पृथिवीपद्ममध्ये मेरुकणिकासनस्थं ) ईशं ( प्रजानां ईशितारं ब्रह्माणं पश्यामि ॥ १५ ॥
अनुवाद। अर्जुन कहते हैं, हे देव ! तुम्हारे देहमें समुदय देवोको, जरायुजादि नानाविध भूतसमूहको, दिव्य ऋषियोंको समुदय उरगोंको और कमलासनस्थित प्रजापति ब्रह्माको देखता हूँ ॥ १५ ॥
व्याख्या। अब साधक ब्रह्ममुखी वृत्तिसे अपने देहके भीतर चित्तपथमें चित्तपटमें विश्वरूप देखते हैं। द्रष्टा न होनेसे दृश्यका दर्शन नहीं होता, इसलिये साधक अहंरूपसे अपनेको द्रष्टा मानकर विश्वको त्वं-रूपसे दृश्य बनाकर अपने आपको भूलकर विश्वरूपमें मतवाले हो जाते हैं, और कहते हैं-हे देव! तुम्हारे दिव्य देहमें सबही आकाशकी लीला है, पृथिवीका गन्ध, जलका रस, तेजका रूप, वायुका स्पर्श और आकाशका शब्द लेकर शून्य ही में पत्रीकरण होता है; सत्त्व, रज और तमोगुणके त्रिकरणके मिश्रण हेतु यह