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एकादश अध्याय दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्य गपदुत्थिता। यदि भाः सहशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ १२॥
अन्धयः। यदि दिवि ( आकाशे ) सूर्यसहस्रस्य भाः (प्रभाः) युगपत् उत्थिता भवेत् , ( तहिं ) सा (प्रभा) तस्य महात्मनः (विश्वरूपस्य ) भासः ( प्रभायाः) सदृशी स्यात् ॥ १२॥
अनुवाद। यदि आकाशमें सहस्र सूर्यको प्रभा एकही काल में उदित हो, ( ऐसा होनेसे ) वह प्रभा उप महात्माको प्रभाके सदृश हो सकती है ।। १२॥
व्याख्या। विश्वरूपकी इतनी ज्योति, इतना तेज है कि, उसकी सीमा नहीं हो सकती। कदाचित् एकही कालमें एकही साथ अनन्त सूर्यका उदय हो, उस सूर्य्य समूहकी ज्योति श्राकाशमें जिस प्रकार प्रभा विस्तार करेगी, वह भी इस प्रभाके आगे कदापि नहीं ठहर सकती। उसकी उपमा नहीं ! तुलना भी नहीं ! ॥ १२ ॥
तत्रकस्थं जगत् कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यदेवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥ १३ ॥ अन्वयः। तदा पाण्डवः ( अर्जुनः ) तत्र देवदेवस्य शरीरे अनेकधा प्रविभक्त ( नानाविभागेनावस्थितं ) कृत्स्नं जगत् एकस्थं अपश्यत् ।। १३।।
अनुवाद। तब अर्जुनने उस देवाधिदेवके शरीर में नाना प्रकारसे विभक्त समग्र जगत्को एकत्र स्थित अवलोकन किये ।। १३ ॥
व्याख्या। उस वासुदेवके शरीरमें स्थावर जंगमात्मक ( एक पार्थिव अणुसे शिवादि कृमि पर्यन्त ) विश्वकोषमें जितने प्रकारके दृश्य हो सकें, सब एकटे स्थित हैं। साधनसिद्ध अनुभवसे साधक ( अर्जुन ) उसे प्रत्यक्ष करना प्रारम्भ करते हैं ॥ १३ ॥