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श्रीमद्भगवद्गीता - __ प्रधानसे भी महान् योगेश्वर हरिने (जो सर्वको हरण करते हैं ) अर्जुनको दिव्य चक्षु देकरके "परम" जो ईश्वरतत्व है, उसे ही दिखलाया ॥
अनेकवक्तूनयनमनेका तदर्शनम् । अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥ १० ॥ दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥ ११ ॥ अन्वयः। (तत् रू एवंभूत )-अनेकवक्त नयनं, अनेकाद्भुतदशनं अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधन् , दिव्यमाल्याम्बरधर, . दिव्यगन्धानुलेपनं, सांश्चर्य्यमयं, देव ( द्योतनात्मक ), अनन्तं ( अपरिच्छिन्नं ), विश्वतोमुख ( सर्वतः मुखविशिष्ट ) ॥ १० ॥ ११ ॥ __ अनुवाद। (वह रूप ) अनेक मुख और नयन विशिष्ट, अनेक अद्भ तदर्शन विशिष्ट, अनेक दिव्य आभरण विशिष्ट, अनेक उद्यत दिव्य अस्त्र विशिष्ट, दिव्य माल्य और वस्त्रधारी, दिव्य गन्धानुलेपित, सर्वांश्चर्य्यमय, दीप्तिमय, अनन्त, और सर्वत्र मुख विशिष्ठ है ॥ १०॥ ११ ॥
व्याख्या। अनेक मुख, अनेक नयन, अनेक अद्भुत दर्शन . (जिसका साधनावस्थाके पूर्व में और कभी दर्शन न हुआ हो), अनेक
आभरण, अनेक अस्त्र शस्त्र (१०म : ३१वां श्लोक) धारण कर रहे हैं, वह समस्त ही आकाशसे गढ़ा ( बनाया ) हुआ है। आकाशीयफूलकी माला, आकाशीय वस्त्र, रूपकी ज्योतिसे खिल पड़ा है। आकाशमें कुंकुम-कस्तुरी-चन्दनका अनुलेपन, समस्त ही आश्चर्य्यजनक है। छायाहीन ज्योतिर्मय मूर्ति है। एक आध नहीं, अनेक, असंख्य; विश्वकोषमें जो कुछ ज्ञात वा अज्ञात है, वह सब प्रगट हो गया। (१०म अः ३५वां श्लोकमें "विश्वतोमुख" देखो)॥१०॥११॥