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श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। हे गुड़ाकेश ! मेरे इस देहमें प्राज सचराचर समग्र जगत् और भी दूसरा जो कुछ तुम्हें देखनेकी इच्छा हो, ( उन समस्तको अवयव रूपसे ) एकत्र अवस्थित है, देखो ॥ ७॥ - व्याख्या। हे गुड़ाकेश ! ( गुडाका = निद्रा, ईशनियन्ता; (हम अः २३वां श्लोक देखो) यह जो सचराचर जगत् है, (चरजो घरते फिरते रहते हैं, जीव समूह; और अचर =स्थावर, जो चल नहीं सकते, जैसे वृक्ष, पत्थर प्रभृति ) ये समस्त ही मेरे शरीरके भीतर इकट्ठ कैसे रहते हैं देखो। और भी देखो भूत-भविष्यत्-वर्तमान कालकी घटनावलि, (तुम्हारे साधन समरकी जय-पराजय, संशयछेदनादि ) जो तुम्हारी इच्छा हो, वही देखो ! ॥७॥
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । . दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥८॥
अन्वयः। तु ( किन्तु ) अनेन एव स्वचक्षुषा मां द्रष्टुं न शक्यसे; अतः ते ( तुभ्यं ) दिव्यं चक्षुः ददामि; मे ऐश्वरं ( असाधारणं ) योग ( अघटनघटनसामर्थ्य ) पश्य ॥ ८॥
अनुवाद। परन्तु तुम इन दोनों चक्षुसे मुझको देखनेमें असमर्थ हो, अतएव तुमको में दिव्य चक्षु देता हूँ; उससे मेरे असाधारण योगबलको देखो ॥ ८॥
व्याख्या। ये जो तुम्हारे दो चक्षु हैं, इनसे तुम केवल बाहरवाली चीजें (प्राकृतिक स्थूल पदार्थ) देख सकते हो; उनसे 'मैं' ( मुझको ) देख नहीं सकते। 'मैं' का योग ( हममें माया कैसे मिल जाती है, तथा उत्पन्न होती है, खेल करती है ) देखना हो तो, इन दोनों चर्म चक्षुकी दृष्टिसे काम नहीं चलेगा। तुमको मैं ऐसा एक भाकाश सदृश चक्षु देता हूँ (८म अः ३य श्लोकके तद्ब्रह्म