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एकादश अध्याय व्याख्या। देखो! आकाश मय ज्योतिसमष्टि द्वादश सूर्यके तेज एकत्र देखो। इस ज्योतिकी सीमा नहीं, परन्तु आँस चमकती या दर्द नहीं करती। क्या आश्चर्य है ! फिर वह देखो! उस तेजके परिवर्तनसे ही “वसु” (१०म अः २३वा श्लोक देखो)-महज्योति की खण्डाशके व्यष्टि भाव है। __"रुद्रान्” (१०म अः २३वां श्लोक देखो )-अभावनीय परिवर्तन . (संहरण)। एक दृष्टिसे ताकते रहनेसे भी परिवर्तनका आदि अन्त मालूम नहीं होता।
"अश्विनौ”---फिर रूपकी प्रभा देखो। एक खिल करके फिर दूसरेको खिलाती है, वह भी खिल करके फिर खिलानेवालेको भी खिलाती है। मनोमोहकरी अपरूप रूप देखो।
"मरुतः"-फिर वह देखो, वे सब भंग होकर, झिलमिल मिलमिल सागर तरंग-ज्योतिकी लहर; जैसे एकोनपञ्चाशत् पवन अनन्त सागरके अनन्त वक्षमें चन्द्र, सूर्य, अग्नि, विद्यु तके घोलमेल से मतवाला होकर होली खेलता है; केवल इतना ही नहीं परन्तु और भी कितना अदृष्टपूर्व, जिसे असाधक अवस्थामें कभी कोई देखने नहीं पाते, उसे भी देखो! अहो क्या आश्चर्य है ! हे भारतचिज्ज्योतिनिविष्टचित्त साधक ! देखो, देखो, कितना आश्चर्य व्यापार है देखो !! ॥ ६ ॥
इहैकस्थं जगत कृत्स्नं पश्यांद्य सचराचरम् । मम देहे गुड़ाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि ॥७॥
अन्वयः। हे गुड़ाकेश ! अद्य सचराचरं कृत्स्नं जगत् अन्यत् च यत् द्रष्टु इच्छसि ( तत् ) इह ( अस्मिन् ) मम देहे एकस्थं (अवयवरूपेण एकत्र स्थितं ) पश्य ।। ७॥