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एकादश अध्याय __ व्याख्या। ऐसा “मैं”, जिसे त्वं-ज्ञानमें पहुंचकर समझना होता है, जिसके विषयमें तुमने कहा है, वह वैसा ही है। इससे अन्यथा नहीं । तुम परमेश्वर अर्थात् ज्ञान ऐश्वर्या शक्ति बल वीर्य्य तेज सम्पन्न हो। हे पुरुषोत्तम ! हे त्वं ज्ञानके प्राणसखा ! तुम्हारे उसी ऐश्वरिक रूप देखनेकी हमें बड़ी अभिलाषा है। आपके उपदेशानुसार हमारे अन्तष्करणमें जो जो अनुभवादि हुए हैं, उनमें अब किसी प्रकारका संशय नहीं; परन्तु मैं बाहर आकर जो यह वह सो पृथक् विचार कर गोलमाल (गड़बड़ ) कर देता हूँ, अब तुम उन्हीं सबकी मीमांसा कर दो-किस प्रकारसे एक अवयवमें -एक अंशमें इस विश्व जगत्को धारण किये हो, उसीको देखनेकी मेरी वासना है ॥३॥
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥४॥ अन्वयः। हे प्रभो ! यदि तत् ( ऐश्वरं रूपं ) मया द्रष्टुं शक्यं इति मन्यसे, ततः ( तहिं ) हे योगेश्वर ! त्वं मे ( मह्य) अव्ययं आत्मानं दर्शय ॥ ४ ॥
अनुवाद। हे प्रभो! यदि मैं वह रूप देखने में समर्थ होऊ ऐसा आप समझे तो हे योगेश्वर ! आप मुझको अपना वही अव्यय आत्म-स्वरूप दिखाइये ॥ ४॥
व्याख्या। हे प्रभो! हे दीनबन्धो ! योगेश्वर ! (योगेश्वर उसे कहते हैं जो अहं अथवा त्वं भावमें चाहे जिसमें रहे, परन्तु उसमें योगावस्थाका अभाव कभी न हो) यदि मैं इस त्वं ज्ञानमें रह करके तुम्हारे उस अहं भावको देखनेके लायक होऊं तो तुम मुझको भीतर बाहर मिला कर अपना अव्यय आत्म-भाव दिखलाओ॥४॥
श्रीभगवानुवाच । पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥५॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हे पार्थ! मे नानाविधानि दिव्यानि ( अलौ