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. श्रीमद्भगवद्गीता किकानि ) नानावर्णाकृतीनि च ( नानाविधैः वर्णैः आकृतिभिश्च युक्तानि च ) शतशः अथ सहस्रशः रूपाणि पश्य ॥५॥ ___ अनुषाद। श्रीभगवान् कहते हैं,-हे पार्थ । मेरे नानाविध, दिव्य ( अलौकिक ) नाना वर्ण और आकृतियुक्त शत शत और सहस्र सहस्र रूप देखो ॥५॥
व्याख्या। [ पूर्वोक्त चार श्लोकमें साधक जीवभावमें जो आकांक्षा करता है, इन चार श्लोकोंमें आत्मभावसे वह पूर्ण होता है,-दिव्यदृष्टिके विकाशसे विश्वरूप प्रत्यक्ष होता है।]
हे पार्थ! (पृथ् क्षेपणे; अविच्छिन्न रूपसे आत्मज्ञानमें जो नहीं रह सकते उन्होंकी संज्ञा पार्थ है ) देखो, “मैं” का रूप देखो; शत शत, सहस्र सहस्र, अन्तशून्य अनन्त कैसा है, सो देखो। मैं एक हो करके भी कसे बहुश्रात्मक हूँ, फिर बहु होकरके कैसे एक हूँ, उसे देखो। सबही आकाशके कार्य हैं; स्याही, कूचा, फूस ( खर ), मट्टी कुछ भी नहीं है। नाना प्रकार के रंग, सब आकाशके हैं, आकाशसे गढ़ा हुआ नाना प्राकृति आकाशमें लटकाई हुई हैं, अोट पोट कुछ नहीं। निराश्रयमें आपही आप अपना अपना मूर्तियोंका प्रकाश, जैसे आप ही श्राप करते हैं। परस्पर किसीके कोई सहारे नहीं, सबके सब स्वतन्त्र हैं ॥५॥
पश्यादित्यान् वसून रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
बह न्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥ ६ ॥ अन्वयः। हे भारत ! आदित्यान् वसून रुद्रान् अश्विनी महतः ( एकोनपञ्चाशदेवताविशेषान् ) पश्य, तथा बहूनि अदृष्टपूर्वाणि आश्चर्याणि पश्य ॥ ६ ॥
अनुवाद। हे भारत ! आदित्य गोंको वसुगणोंको, रुद्रगणोंको अश्विनीकुमारद्वयको तथा मरुद्गणको देखो; और भो बहु अदृष्टपूर्व सब आश्चर्य देखो ॥ ६॥