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श्रीमद्भगवद्गीता भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया। त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥२॥
अन्वयः। हे कमलपत्राक्ष ! त्वत्तः ( स्वत् सकाशात् ) भूतानां भवाप्ययो हि ( सृष्टिप्रलयौ ) मया विस्तरशः श्रुतो, अव्ययं माहात्म्यं अपि च ( श्रुतम् ) ॥ २॥
अनुवाद। हे कमलपत्राक्ष ! तुमसे भूतोंकी सृष्टि और प्रलयकी कथा मैंने सविस्तर सुनी, अव्यय माहात्मय भी सुना है ॥ २॥
व्याख्या। हे कमलपत्राक्ष ! कमल पत्तीके जलमें रहनेवाला पीठ के ऊपर ताकनेसे उसके सर्व स्थानमें ही जसे शिरा खचित चक्षुका
आकार देखा जाता है, वेसे जगत्के प्रत्येक अणु परमाणुओंमें द्रष्टा स्वरूपसे तुम हो; कहाँ ऐसा कुछ नहीं, जो तुम्हारी हक्शक्तिकी अन्तरालमें रह सके। भूत समूहके भव अर्थात् उत्त्पत्तिका विषय, अप्यय अर्थात् प्रलयका विषय, और “मैं” का ( मेरे) माहात्म्यका विषय तुम्हारे निकट (अर्थात् जब मैं "मैं” के भावमें था, उसी भावमें रह करके ) विस्तार रूपसे मैंने सुना है-प्रत्यक्ष किया है और समझा है ॥२॥
एवमेतद् यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर । .
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वर पुरुषोत्तम ॥ ३ ॥ अन्धयः। हे परमेश्वर ! त्वं आत्मानं यथा आस्थ ( "विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्" इत्येवं कथयसि ) एतत् एवं ( न अन्यथा इत्यर्थः); हे पुरुषो. त्तम! ते ऐश्वरं ( ज्ञानेश्वय्यशक्तिवलवीय्यंतेजोभिः सम्पन्नं ) रूपं द्रष्टुं इच्छामि ॥ ३॥
अनुवाद । हे परमेश्वर ! आत्मविषयमें तुमने जिस प्रकार कहा है वह ऐसा हो है। हे पुरुषोत्तम ! तुम्हारा (वही ) ऐश्वरिक रूप देखनेकी मैं इच्छा करता हूँ ॥३॥