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श्रीमद्भगवद्गीता मानवोंको एक अवएवमें भिन्न भिन्न अंग प्रत्यंग और लक्ष लक्ष रोम-. कूप विद्यमान हैं, वैसेही एक भगवत् अवयवमें कोटि कोटि ब्रह्माण्ड वर्तमान हैं। भगवान् विश्वरूपी हैं; बिना भगवान्के दृश्यादृश्यके भीतर बाहरमें कुछ नहीं है। इसलिये श्रुति कहती है-पादोऽस्य विश्वा भूतानि'।
अर्जुन ( साधक ) अब उपासनाफाण्डमें उन्नति लाभ करके दिव्य चक्षु प्राप्त होनेके उपयुक्त हुए हैं। इसलिये भगवान् (गुरुदेव ) ने इस श्लोकमें उनको बहुज्ञान त्याग करके एकज्ञान अवलम्बन करनेका आभास दिया है। यहाँसे ही विश्वरूप दर्शनकी सूचना होती है ॥४२॥
इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संघादे विभूतियोगो नाम
दशमोऽध्यायः।