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श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। हे साधक ! इस स्थावर जंगमात्मक विश्वमें जो कुछ तुम देखते हो, सो सब 'मैं' से ही होता है, सबही 'मैं' है । 'मैं बिना 'तुम' कह करके कुछ भी देखने न पाओगे। 'मैं' छोड़कर किसीका पृथक् सत्ता नहीं है ॥ ३६॥
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूहेशतः प्रोक्तो विभूतेविस्तरो मया ॥४०॥४०॥ अन्वयः। हे परन्तप ! मम दिव्यानां विभूतीनां अन्तः न अस्ति; एष तु विभूतेः 'विस्तरः मया उद्देशतः ( संक्षेपतः ) प्रोक्तः ॥ ४० ॥
अनुवाद। हे परन्तपः ! मेरे दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। इसलिये इस विभूति-विस्तारको संक्षेपसे कहा है ॥ ४०॥
व्याख्या। 'परन्तप' अर्थमें जो पराए बल वा शक्तिको पीड़न करनेकी शक्ति रखते हैं। ये मायामय जितनी विभूति हैं, मायाको दाब करके 'मैं'-प्रतिपादन न कर सकनेसे इन सबका अन्त नहीं किया जा सकता। ('मामेव ये प्रपद्यन्ते' देखो)। इस विभूतिका कूल किनारा नहीं है । तब भी प्रधान प्रधान थोड़ासा कहा है । 'उद्देशतः'उद्देश करके, अर्थात् प्रधानका नाम करनेसे तज्जातीय समुदयको ही उद्देश्य किया जाता है। इसलिये विभूति अनन्त होनेसे भी संक्षेपसे सब ही कहा गया है ॥ ४०॥
यद् यद् विभूतिमत सत्त्वं श्रीमदूजितमेव वा।
तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् ॥४१॥ अन्वयः। विभूतिमत् ( ऐश्वर्ययुक्त) श्रीमत् ( सम्पत्तियुक्त) अज्जितं (केनापि प्रभावबलादिना गुणेन अतिशयितं ) यत् यत् सत्त्वं ( वस्तुजातं ) तत् तत् एव मम तेजोऽशसम्भवं ( भम प्रभावस्य अंशेन सम्भूतं ) अवगच्छ ॥ ४१॥ ___ अनुवाद। जो कुछ विभूतिमत् श्रीमत् और तेजयुक्त वस्तु देखोगे उसे हमारे ही तेजका अंश सम्भूत जानना ॥ ४१॥