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श्रीमद्भगद्गीता ___ "कवीनामुशना कवि"। हर बातमें जो नया बोलता है, वही कवि है। उशनस्–वश् = इच्छा करना+ अनस कत्तु ( संज्ञार्थे ) अर्थात् जो इच्छा करता है। इच्छासे ही कवित्वका प्रारम्भ होता है ( "कविं पुराणम्” ८म अ हवा श्लोकमें कवि शब्दकी व्याख्या - देखो)। मैं इच्छाको आश्रय भूमि हूँ; उशना भी इच्छाकर्ता है, इसलिये 'मैं' कवियों के भीतर "उशना” हूँ। सृष्टि और प्रलय, ये दोनों ही इच्छाके अधीन हैं। सृष्टिसे प्रलय जैसे आपही आप होता है, इसमें कवित्व अनुभव किया नहीं जा सकता। परन्तु प्रलयसे जो सृष्टि, उसीमें कवित्व है। यह कवित्व (शुक्राचार्य) में मृतसञ्जीवनीशक्ति रूपसे रहनेसे उशना मृतकको भी प्राणदान देते हैं। यह शक्ति भी हममें प्रतिष्ठित है, फिर मृतसब्जीवनीमें ही नूतनत्व है।
अब साधक ! तुम देखो, शुक्रशब्दसे श्वेत, तेज, निम्मलको समझा जाता है। फिर यह शुक्र एकचक्षु-विशिष्ट है । · साधक जब निर्मल अवस्था पा करके तेजोराशिके भीतरसे उठकर मृत्युको जय कर लेता है, तब वह मरजगत्की आदि अन्त लीला और अमरत्वका जो कुछ ज्ञान है, उसे समझकर प्रतिक्षण में ही अपने में नूतनत्वका अनुभव करता है। इस अवस्थामें साधककी चमचक्षुकी दृष्टि नहीं रहती। एकमात्र ज्ञानचक्षु ही खुला रहता है। प्रकृतिके वशमें न रह करके प्रकृतिवशी होनेसे यह अवस्था प्राप्त होती है। 'मैं' प्रकृतिवशी हूँ; उशना में भी प्रकृतिवशीत्व है, इसलिये कवियों के भीतर उशना श्रेष्ठ है वही मैं हूँ। अतएव उशना भी मैं हूँ ॥ ३७॥
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥ ३८ ॥ अन्वयः। अहं दमयतां ( दमनकर्त, गां) दण्ड: अस्मि, जिगीषतां ( जेतुमिच्छता ) नीतिः ( सामाा पायः ) अस्मि, गुह्यानां मौनं ( अस्मि ) ज्ञानवता ज्ञानं च अहं एव ॥ ३८॥