________________
श्रीमद्भगवद्गीता है। यह घ त-क्रिया क्षत्रिय * राजाओंका खेल है, जिसके पणसे एक जन सर्वस्वान्त होता है, और एककी जय होती है। जितनी प्रकारकी प्रकचना हैं, उनके भीतर सर्वस्वान्तकर होनेसे, यह चूत क्रीड़ाही मैं हूं। साधक ! तुम देखो, अप्राणीके खेलका नाम द्य त है। जब तक प्राणकी चञ्चलता रहती है, अर्थात् चला फिरा रहती है तबतक 'सर्व' रहता है। जबही तुम्हारा प्राण स्थिर हो जाता है उसके साथही साथ तुम सर्वस्वान्त होते हो। जब तुम सर्वस्वान्त हो गये ( वही तुम्हारा सर्वसे वञ्चित होना है), और साथही साथ तुम भी 'मैं' हो जाते हो। __ "तेजस्तेजस्विनामहम्”-तेजस्वियोंका नेज मैं हूं। साधक ! और एक बार तुम विवस्वान्में उठो। देखो, यह जो चन्द्रसूर्याग्नि और नक्षत्रादि ज्योतिष्क मण्डल हैं इनके प्रकाश, और मायाका प्रकाश भी हमहीसे होता है, इसलिये मैं तेजका भी तेज हूँ। ___ "जयोऽस्मि"-जय कहते हैं जहां सब हारे हैं। जितने प्रकारकी क्रिया हैं; सबकी विश्राम भूलि 'मैं हूँ। मैं निष्क्रिय हूँ, इस कारण कोई क्रिया मुझको नहीं हरा सकती; इसलिये मैं "जय" हूँ। . "व्यवसायोऽस्मि” व्यवसाय कहते हैं आदान-प्रदानको । माया प्रकृति सज करके हमसे कुछ लेती है (यह लेना ही संसार है ), फिर मुझको कुछ देतो है (यही प्रलय है ); ये जो मायाकी सृष्टि और प्रलय हैं, यह मुझको लेकरके ही होता है; इसलिये व्यवसाय भी
"सत्वं सश्ववतामह'। जो सब साधक सत्त्वगुण लेकर खेल (साधन ) करते हैं, उन सभोंकी आठ प्रकारको अवस्था होती है,
____ * क्षतात् त्रायते इति क्षत्रिय। क्षत असम्पूर्णता है। असम्पूर्णतासे जो त्राण करते हैं वही क्षत्रिय हैं ।। ३६ ॥