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दशम अध्याय साधक जब प्राणायामके फलसे कूटस्थमें स्थिरता लाभ करते हैं, तब अन्तर-प्रदेश मनोरम आकार धारण करता है, उस समय मन प्रफुल्लित होकर अव्यक्त आनन्दमें मतवाला हो जाता है, वही साधकके साधनका वसन्त ऋतु है; उसी समय उनको आत्मज्ञानरूप कुसुमका विकाश होता है; उसो कुसुमसे ही आत्मसाक्षात्कार रूप फलोत्पन्न होता है । इन सब कारणसे ही अन्तर, बाहरमें वसन्त ऋतुकी प्राधान्यता है। इसलिये कहा हुआ है कि, ऋतुओंके भीतर मैं कुसुमाकर वसन्त हूँ॥ ३५॥
घ तं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्वं सत्त्ववतामहम् ॥३६॥ अन्वयः। अहं छलयता (अन्योऽन्यवञ्चनपराणां सम्बन्धि ) धूतं, ( तथा ) तेजस्विनां तेजः ( प्रभावः ) अस्मि; अहं (जेतृणां ) जयः अस्मि, ( व्यवसायिनां) व्यवसायः ( उद्यमः ) अस्मि, सत्त्ववता ( सात्त्विकानां ) सत्त्वं अहं ।। ३६ ॥
अनुवाद। छल करनेवालोंके भो तर में मैं य त-क्रीड़ा, तेजस्वियोंका तेज मैं हूँ, में जयस्वरूप, में व्यवसाय स्वरूप, और सत्त्ववानोंका सत्त्ववानोंका सत्त्व स्वरूप
व्याख्या। प्रकचनाके भीतर मैं 'द्य त' हूँ। पण रख करके प्रतिद्वन्द्रियोंके साथ जिस काममें प्रवृत्त हुआ जाय उसका नाम 'ध त'
___ * यही वसुदेवकी पुत्रोत्पत्ति है। जबतक ज्ञान पूर्णविकशित नहीं होता, तबतक आत्मसाक्षात्कार अचिरस्थायी होता है अर्थात् मायाके आकर्षणमें क्षणकालके बाद विनष्ट होता है। यही वसुदेवके छः पुत्र विनष्ट होनेका तात्पर्य है। ये सब षट्चक्रके भीतर साधनाको उन्नतिके क्रममें भङ्ग-समाधिको क्रिया हैं। पश्चात् षट - चक्र पार होकर सप्तम भूमि शहस्रारमें ठठने के बाद ज्ञान पूर्णविकशित होनेसे माया पुन: साधकको लक्ष्य-भ्रष्ट करवाने नहीं सकतो; इसलिये आत्मसाक्षात्कार स्थिर और चिरस्थायी होता है। यही वसुदेवके सप्तम और अष्टम पुत्रके विनष्ट न होनेका तात्पर्य है ॥ ३५॥