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दशम अध्याय स्वेद, स्तम्भ, रोमाञ्च, स्वरभंगा, वेपथु, वैवर्ण, अश्रु, और प्रलय । साधक ! जिस दिन तुम प्रथम आसन पर जाकर बैठे, उसी दिनसे अपनी साधनाकी अलग अलग अवस्था समूहको स्मरण करते जानो। देखो, पहले ही तुम्हारा स्वेद (धर्म वा पसीना) बाहर हुआ था, जिससे शरीर स्निग्ध होकर भीतरवाले उद्वेग नष्ट हो जाने से तुम्हारा शरीर स्तम्भवत् दृढ़ और अटल हुआ था, तुमने स्थिर भावसे बैठे रहनेकी शक्ति पाई थी; तत्पश्चात् तुम्हें रोमारूच हुआ था, अर्थात् शरीरकी रोमावली कण्टक सदृश खड़ी हो गई थी; तत्पश्चात् तुम्हारा स्वरभंग हुआ था, अर्थात् साधनके पहले जिस प्रकार निश्वास प्रश्वासकी गति-विधि थी, वह भंग होकर और एक प्रकारके निश्वास प्रश्वासका प्रवाह तुममें वर्तमान था अर्थात् दोनों ही समान थे, जितना निश्वास, उतना ही प्रश्वास होकर विषमता मिट गई थी; उसके बाद वेपथु ( कम्पन ) आया, अर्थात् प्राणायामसे प्राणप्रवाह अतीव सूक्ष्म होकर सुषुम्नाके भीतर प्रवेश करके कर श्लेष्मा द्वारा बाधा प्राप्त होनेसे जबतक वह श्लेष्मा ऊर्ध्वाधः प्राण प्रवाहसे विशुष्क न हुये थे, तबतक वायुकी प्रतिहत गतिके धक्केसे शरीरकी स्नायुमण्डली कम्पित हुई थी। उसके बाद ही शरीरमें वैवर्ण उपस्थित हुआ था, अर्थात् क्रूर श्लेष्मा विशुष्क होकर सुषुम्ना-पथ परिष्कार होनेसे प्राणवायु सूक्ष्म सरल और अप्रतिहत गतिसे प्रवाहित होकर सुप्तशक्ति समूहको प्रबुद्ध किया था, जिससे शरीरकी लावण्य वृद्धि हो करके कोमलता आई थी, भीतरवाले अनजान प्यार रस करके तुम्हारी दोनों आंखें भर आई थों और उनमें ऐसा एक निर्मल ज्योतिप्रकाश पाया था, जिसको देखने से ही जीवमात्र को तुमसे प्रेम करने की इच्छा होती है; तुम्हारे शरीरमें पहिले जो वर्ण रहा, सो बदल गया था। साधनमें इस अवस्थाके बाद ही अश्रु अवस्था है; जगतमें भला व बुरा जो कुछ है वह सबही जसे हमारे प्रेमवाले और प्राणकी चीज