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दशम अध्याय भोग धेनुसे मिलता है; इन धेनुके भीतर फिर कामधुक् से इच्छा मात्र ही परम सुखसे वह भोग मिल जाता है। "काम” कहते हैं इच्छाको, "धु" कहते हैं कम्पन को, और "क" कहते हैं आत्माको। कामधुक् शब्दका अनुभूति समझना हो तो भोगेच्छामें जो अविरोधि आत्मकम्पन है उसीको समझना होगा। यह सबसे कष्ट-शून्य श्रेष्ठ भोग है। अब साधक तुम देखो! ठीक तुम्हारे उस प्रकृतिपुरुष-विवेक ज्ञानके पश्चात् मायासे आत्मत्व लेनेके लिये आत्माकी दिशामें जो झुकाव है, जो निषादके ( सप्तस्वरके शेष स्वर जो 'नि' उस 'नि' का भी सर्वोच्च अन्तिम स्वरकम्पनके ) सदृश; सुर (को) छू छू करके छूने नहीं पाकर घुम आना फिर छूनेकी लालसामें छूते जाना, यह जो अविश्रान्त आना जाना है, यही कामधुक अवस्था है। इस अवस्थामें तुम्हारा “मैं” बिना दूसरा लक्ष्य नहीं रहता परन्तु "मैं" में गिरते गिरते भी गिरनेका अक्सर नहीं ले सकते । यह जो आवागमन रूप कम्पन है, वह कम्पन होनेसे मी "मैं" में मिला हुआ कह करके "मैं" बिना और कुछ नहीं है। इस अवस्थामें स्थित साधकका अन्तःकरण जो कुछ चाहता है उसे वह पाता है। इसलिये धेनुओंके भीतर मैं "कांमधुक” हूँ।
"प्रजनश्वास्मि कन्दपः”। –'प्र' शब्दसे ख्याति अर्थात् नाम: घोषणा, 'जन' शब्दसे जन्माना, और 'अ' शब्दसे कर्त्ताका बोध होता है। जनमते मात्र जिसका नाम घोषणा होय अर्थात् नाम पड़े (संसारमें जो कुछ दर्शनीय है ) वही "प्रजन” है।
"कन्दर्प”। कं-सृष्टिकर्ता ब्रह्मा+हप् = सन्दीपन करना+अ ( अन् ) कर्तवाचक शब्द। अर्थात् जन्म लेते मात्र सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को (जो जिसकी सृष्टि करता है, वह उसीका ब्रह्मा ) जो सन्दीपित (मोहित ) करता है वही कन्दर्प है। अब साधक ! एक बार मेरा दर्शन करो; जनम लेनेके पहले मेरा कोई नाम नहीं था जनम लेनेके