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दशम अध्याय अनुवाद। सर्वहर मृत्यु भी मैं हूँ, भाविकल्प प्राणीगणोंकी उत्पत्तिका हेतु भी मैं हूँ। नारोगों के भीतर कीत्ति, श्री, वाक् , स्मृति मेधा, धृति और क्षमा भी
व्याख्या। "मृत्युः सर्वहरश्वाह"। ब्रह्माजीको आदि लेकर स्थावरान्त पर्य्यन्त जो कुछ है उन सबको ही "सर्व" कहते हैं। जिस महाशक्तिके प्रभावसे इस सर्वका हरण होता है, अर्थात् रूपान्तर, अवस्थान्तर, वा स्थानान्तर होता है, उसीको मृत्यु कहते हैं। इस मृत्युके हाथसे किसीकी अव्याहति नहीं; भूवन-कोषके समस्त पदार्थ ही इसके आयत्ताधीन हैं। इसीके वशमें परा और अपरा प्रकृतिद्वय के संयोग निरन्तर हरण (विच्छिन्न ) होता है। प्रलय-कालमें यह संहरण-क्रिया प्रबल होकर समुदयको एक काल में ( समयमें ) संहार करती है। इसलिये ही मृत्यु सर्वहर वा सर्वहारक है। यही भगवान् की नाशिनी शक्ति–तमोगुणकी क्रिया है; अतएव यह भगवत् विभूति है। इसलिये कहा गया 'सर्वहर मृत्यु मैं हूँ। ___ "उद्भवश्च भविष्यताम्"। उस सर्वहर मृत्युरूपा नाशिनी शक्तिसे प्रलयकालमें सर्वसंहार होनेके पश्चात् फिर जिस महाशक्ति द्वारा सृष्टि-क्रिया प्रारम्भ होता है, उसी महाशक्तिका नाम उद्भवकारिणी वा सृष्टिकारिणी शक्ति-रजोगुणकी क्रिया है। इसलिये वह भगवत् विभूति है; इसलिये प्रलयके बाद जीवके भावी उद्भव भी मैं हूँ। - "कीर्तिः श्रीर्वाक चेति”। भगवानकी यह जो सृष्टि और संहार रूप क्रिया हैं, इसके भीतर उनकी एक स्थिति सम्पादनकारिणी शक्ति वर्तमान है; वही उनका पालिनी शक्ति-सत्त्वगुणकी क्रिया है। उनकी यह पालिनी शक्ति सात सत्त्वगुणाधिष्ठात्री महाशक्ति रूपसे विश्वजगत्को पालन करती है। वह सात शक्ति यथा,-कीर्ति, श्री, वाक , स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हैं।