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श्रीमद्भगवद्गीता ( साधक ! संसारी तुम और अपनी ब्राह्मीस्थिति, मिलाकर . देख लो)। ___ "धाताहं विश्वतोमुखः”। धाता कहते हैं धारण करनेवालेको।
और अहं शब्दमें "मैं"। मैं इस जगत्को धारण कर रहा हूँ, इसलिये मैं 'धाता' हूँ। 'मैं' कह करके अहंकार जब न रहेगा, तब ही यह जगत् उड़ जावेगा। इसलिये मैं जगतका नियामक, नियन्ता वा चाळक हूँ। जो सीमाबद्ध और शीर्ण होय, उसीको शरीर कहते हैं। इस शरीरके ऊपर इस 'मैं' का अभिमान आरोप करनेसे ही विश्व होता है। विश्व-वि=विशेष, श्व-दूसरे दिनका प्रभातकाल। यह दूसरे दिनका प्रभातकालके पहले बीचमें रात्रि रूप एक अव्यक्त वा मृत्युअवस्था है। जैसे दिनमानके बाद रात्रिमें निद्रारूप अज्ञानता होती है, वैसेही जीवनके पश्चात् और पुनःजन्मके पहले मृत्युरूप अव्यक्त अवस्था है। रात्रि प्रभात होनेके पश्चात् जैसे पुनरुत्थान होती है, वैसे ही मृत्युके पश्चात् भी पुनः जन्म ग्रहण करना होता है। इन दोनों को ही पर दिनका प्रभात काल कहते हैं। यह व्यक्त और अव्यक्त परिणाम ( जन्ममृत्यु ) जिसमें बारम्बार होता है, उसीको विश्व कहते हैं। 'मुख' कहते हैं प्रवेश और निष्काशनके दरवाजेको। यह विश्व प्रलयमें हमहीमें प्रवेश करता है, और कल्पादिमें हमसेही निकल आता है, इस कारण मैं विश्वतो ( सर्वतो) मुख हूं। जैसे वृक्ष में फूल फल होते हैं । साधक ! और तुमको समझानेमें परिश्रम नहीं है। तुम अपने सच्चे “मैं” में बैठकर जगत्को देखनेसे ही समस्त तुम्हारे प्रत्यक्ष हो जावेगा, देखो ॥ ३३ ॥
मृत्युः सर्वहरश्वाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीतिः श्रीर्वाक्च नारीणा स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥३४॥ अन्वयः। सर्वहरः (प्राणहरः ) मृत्युः च अहं, भविष्यताम् ( भाविकल्पानां प्राणिनां ) उद्भवः च ( अहं ), नारीणां क्रोत्ति: श्रीः वाक् स्मृतिः मेधा धृतिः क्षमा च ( अहं एव)॥ ३४ ॥