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श्रीमद्भगवद्गीता 'वादः प्रवदतामहम्' । प्रवदन् कहते हैं यह, वह, सो प्रभृति बहुभाषण ( बकवाद ) रूप वाणीको। और जिगीषाशून्य हो करके सत्यनिर्धारण करनेके लिये जो विचार है, उसीको 'वाद' कहते हैं। सत्य 'मैं विना और कोई नहीं। अतएव मैं प्रवदन के भीतर 'वाद' हूं ॥३२॥
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ ३३ ॥ अन्बयः। अहं अक्षराणां ( वर्णानां मध्ये ) अकारः अस्मि, सामासिकस्य ( समाससमूहस्य ) च द्वन्द्वः ( अस्मि ), अक्षयः कालः, अहं एव, अहं विश्वतोमुखः धाता ( सकर्मविधाता ) ॥ ३३ ॥ ___ अनुवाद। वर्गों के भीतर मैं अकार, समासोंके भीतर द्वन्द्व हूँ, मैं ही अक्षय काल हूँ और सर्व कर्मफलविधाता भी मैं हूं ॥ ३३ ॥ .
व्याख्या। स्वर और व्यजनके प्रत्येक वर्ण ही एक एक अक्षर हैं। जो अक्षर दूसरे किसी अक्षरके सहायता बिना आप ही आप उच्चारित होते हैं, उन्हें स्वर कहते हैं; जैसे-अ, इ, उ, इत्यादि । और जो अक्षर स्वरके सहायता बिना उच्चारित हो नहीं सकते, उन्हें व्य ञ्जन कहते हैं; जैसे-क, ख, ग, इत्यादि। इन अक्षर समूहके भीतर "मैं" अकार हूं। क्योंकि, प्रत्येक अक्षरोंके आदि-अन्त-मध्य में ही 'अ' है । सूईसे शतपत्र भेद होनेके सदृश तत्क्षणात् अनुभवनीय न होनेसे भी 'अ' को छोड़ कर अक्षर नहीं है। परन्तु 'अ' आपही आप अपनेसे उच्चारित होता है। जो स्वतः उच्चारित हो, वही
'मैं हूँ।
_ 'द्वन्द्वः सामासिकस्य च'। जगत्का जो कुछ देखते हो, इसमें
कोई भी बड़ा नहीं;-इसलिये परस्परको दबाकर अपनेको बड़ा .. दिखानेके लिये सब ही व्यस्त हैं। परन्तु जो बड़ा है, उसकी बड़ाई