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दशम अध्याय व्याख्या। 'सर्ग' कहते हैं स्तरको, अर्थात्. जिसका आदि अन्त मध्य है। यह विश्वभी श्रादि-अन्त-मध्य विशिष्ट है । हे अर्जुन ! हे. साधक ! मैं ही यह विश्वरूप स्तर हो करके तुम्हारे सामने विद्यमान हूँ। आकाशमें बांध देकर खण्ड करने जाश्रो तो, स्थूल दृष्टिकी भ्रान्तिसे आकाशका खण्ड होना प्रतीत होने पर भी, सचमुच आकाश जैसा खण्ड नहीं होता, और उसी खण्डके आदि अन्त मध्य में आकाशके विद्यमानताका अभाव भी जैसे नहीं होता; वैसे ही अखण्ड ब्रह्ममें मायाकी दीवाल देकर कल्पनाकी जोरसे एक 'मैं' को बहुधा विभक्त करनेसे भी ( उनके विद्यमानता मायानेत्रसे प्रत्यक्ष करा देने पर भी), ब्रह्म अखण्ड ही रहते हैं। इसलिये कहता हूँ, हे साधक ! तुम प्रत्यक्ष देखो, पृथिवीसे लेकर माया पर्य्यन्त जितने प्रकारकी स्तर ( सृष्टि ) तुममें रही हैं, उन सबके आदि-अन्त-मध्यमें अखण्ड रूपसे एक मैं ही मैं रहा हूँ। तुम्हारा किया हुआ स्तर, सूत्रमें मणिगणके सदृश तुम्हारी आंखकी दृष्टिसे मेरे ऊपर भासमान रहनेसे भी वास्तवमें वह नहीं है। ____ 'अध्यात्मविद्या विद्यानां'। 'विद्या'-(विद् =जानना+य+श्रा) : जिससे वस्तुका स्वरूप जाना जाता है। इस जगत्का जो कुछ है वह सब ही मिथ्या है। और उसी मिथ्याको जो विद्या सत्य साबित करादे, वही अविद्या है। अध्यात्मविद्या उसको कहते हैं, जो बुद्धिको लाकर प्रात्माके साथ मिला देती है (८म अः २य श्लोककी 'अध्यात्म' व्याख्या देखो)। इसलिये कहता हूँ कि, जितने प्रकारके ज्ञान हैं, उन सबके भीतर आत्म ज्ञान ही 'मैं' हूँ। साधक ! तुम देखो, पृथिवी से सबको छोड़कर जब तुम मैं में पड़कर 'मैं' हो जाले हो, तब तुम्हारा सब छूटता है, परन्तु वही 'मैं' नहीं छूटता। जिसका कालत्रयमें विच्छेद नहीं होता, वही नित्य है। वह अध्यात्मविद्या भी नित्य है, इसलिये 'मैं हूँ।