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श्रीमद्भगवद्गीता निर्मल ज्ञान प्रवाहका आदि अन्त न रहनेसे गङ्गा कहते हैं । "गच्छतीती गङ्गा"; जिनकी अविच्छेद-गति ही गति है उसीको गङ्गा कहते हैं, वही जाह्नवी है। जहु मुनिने गङ्गाको पान करने के पश्चात् अपने जानुदेशको चीर कर (गङ्गाको ) बाहर निकाला था इस करके गङ्गा का नाम जाहवी है। जानु कहते हैं उरुसन्धिको, अर्थात् जो स्थान गतिकी उत्पत्ति करवाता है। जह्व-हा के स्थानमें जह +नु कत्त्वे । हा शब्दका अर्थ त्याग करना है, 'जह्नु'-जो सर्वत्यागी है। जह, राजर्षि है । ऋषियों के भीतर जिसमें रजोगुण प्रधान हो, वही राजर्षि है। यह रजोगुण ही संकल्प और विल्कपकी लीलाभूमि है, इसलिये इस क्षेत्रमें विमल ज्ञानका प्रवाह अभिभूत रहता है। यही जळु का गङ्गा को पान करना है। संकल्प-विकल्प मनोमय कोषका खेल है। इस अवस्थामें रहनेसे वाक्यादिका स्फुरण नहीं होता इस करके इन्हें बाहर के लोग मुनि कहते हैं । फिर जब मौनी-अवस्थाको नष्ट करके ऋषिवाक्यका ( उपदेश प्रवाहका ) प्रकाश पाता है, तत्क्षणात् अभिभूत ज्ञान-प्रवाहके अभिभक्-श्रावरण खुलकर प्रवाह ही प्रवाह दिखाई पड़ता है; वही "जाह्नवी" है। वह निर्मल ज्ञान-प्रवाह ही हमारा स्वरूप है। 'ज्ञानप्रवाहा विमलेति गङ्गा'; इसलिये मैं' स्रोतस्वतीयोंके भीतर गङ्गा-'जाह्नवी' हूं ॥३१॥
. सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यचैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ ३२॥ 'अन्वयः। हे अर्जुन। सर्माणां ( सृष्टीनां ) आदिः अन्तः मध्यं च अहं एव; (अहं ) विद्याता ( मध्ये ) अध्यात्मविद्या ( आत्मविद्या ); प्रपदता ( वादिना ) अहं वादः ॥ ३२॥
अनुवाद। हे अर्जुन ! सृष्टिका आदि, अन्त और मध्यमें मैं हूँ, विद्याके भोतर मैं अध्यात्मविद्या, और वादिगणों में ( वाद, जल्प, वितण्डा प्रभृतिके भीतर ) मैं पाद हूँ ॥ ३२॥