________________
श्रीमद्भगवद्गीता दश इन्द्रियां दश दिशामें धावमान हैं; उन सबकी गतिको जो धारण कर लिया; वही दशरथ है । दशरथ-अवस्थासे आत्मा और परमात्मा को रमणोत्पत्ति होती है, इसलिये उस रमण-अवस्थाका नाम दाशरथी राम है। और दश इन्द्रियोंके यह निस्तब्ध अवस्थामें शरीरके मेरुदण्ड मध्यमें सुषुम्ना-पथमें वायु चालित होनेसे आत्मा और परमात्माका मिलनरूप रमणकार्य होता है इसलिये रामको शस्त्रभृत
और दाशरथी कहते हैं। ... "रामः"-रा=विश्व+म=ईश्वर; इस विश्वका जो ईश्वर है, उसको 'राम' कहते हैं। शस्त्र कहते हैं जिसको हाथमें पकड़ रखके किसीको मारा जाय-जैसे खङ्ग, परशु इत्यादि। और अस्त्र कहते हैं जिसको छोड़कर मारना होता है-जैसे तीर, गुलेल, बन्दूक की गोली इत्यादि। शस्त्रके प्रयोग करने वालेको 'शस्त्रभृत्' कहते हैं।
विष्णुका तीन अवतार हैं। परशुराम, दाशरथी राम, और बलराम। दाशरथी रामने परशुरामको जय किया था इसलिये दाशरथी का प्राधान्य खुला था। फिर कृष्णगत प्राणके लिये बलराममें प्राधान्य नहीं खुलके कृष्णमें खुला था। विभूतिके भीतर भी सर्वप्रधान विभूति असंगत्व है। यह असंगत्व दाशरथी राममें निरन्तर विद्यमान रहनेसे, दाशरथी रामको ही शस्त्रभृत् सिद्ध किया गया है। अब बात यह है कि अस्त्र कहो चाहे शस्त्र कहो, ये दोनों चीज ही प्राकृतिक हैं । "मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्"। इस विश्वरूपा प्रकृति अस्त्र को धारण किया है, तथापि जिसमें असंगत्वका विच्छेद नहीं हैं, ऐसा जो राम, वही शस्त्रभृत् राम है। वह राम 'मैं' बिना और कोई नहीं हैं। (साधक ! तुम अपने मैं-अवस्थाको लक्ष्य करो, करनेसे ही अर्थके साथ तुमको तारक ब्रह्म राम-अवस्थाका परिज्ञान होगा)।
"झषाणां मकरश्चास्मि"। मत्स्योंके भीतर मैं मकर हूँ। झष'झ' शब्द नेपथ्य, और 'ष' शब्द श्रेष्ठको कहते हैं । अन्तरालमें जितने