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दशम अध्याय इसलिये इसका नाम गरुड़ है ( गर+ उड़ ); 'गर' शब्दका अर्थ विष, 'उड़' शब्दका अर्थ उड़ा देना है। जो विषको उड़ा देते हैं, उन्हींका नाम गरुड़ है। इस अवस्थामें मन विषय-शून्य होकर चिदाकाशमें रहता है। हममें भी विषय नहीं है। और इस शुक्ल और कृष्णको पक्ष कहते हैं । जिन सबका पक्ष है आकाशमें घूमते हैं, वही सब पक्षी हैं। इसलिये पक्षियों के भीतर गरुड़ 'मैं हूँ ॥ ३०॥
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥ ३१ ॥ अन्वयः। अहं पवतां (पापयितृणां वेगवतां वा मध्ये ) पधमः, ( तथा ) शस्त्रभृता रामः ( दाशरथिः ) अस्मि । ( अहं ) झषाणां ( मत्स्यादीनां मध्ये ) मकरः च अस्मि, स्रोतसां ( मध्ये ) जाह्नवी ( गङ्गा ) अस्मि ॥ ३१॥ ___ अनुवाद। पवित्र करनेवाले पदार्थों के भीतर मैं पवन हूँ, शस्त्रधारियोंके भीतर मैं राम, मत्स्योंके भीतर मैं मकर, और स्रोतस्विनी नदियोंके भीतर मैं जाह्नवी (गङ्गा ) हूँ॥३१॥
व्याख्या। “पवनः पवतामस्मि”। जितने प्रकारके शुद्धि करनेवाले पदार्थ हैं, उन सबके भीतर सर्वशुद्धिकर वायु मैं हूँ। ( साधकोंके लिये उज्ज्वल दृष्टान्त प्राणायाम है)। पवन–'पव' शब्द शुद्धि करने को कहते हैं +'अन्' कर्तृवाचक शब्द; अर्थात् जो शुद्ध करता है। मिथ्या ही अशुद्ध (विकार ) है। माया-विकार हममें आकर पावन होता है इसलिये, 'मैं' सर्वशुद्धकरी 'पवन' हूँ।
'रामः शस्त्रभृतामहम्'। 'राम' ( परमात्मा) इस शरीरमें जो आत्माके साथ रमण करते हैं वही शस्त्रभृत् हैं। शस्-वध करना वा शासन करना। वायु ही शरीरका शास्ता वा शासक है, इसलिये इसे शस्त्र कहते हैं। मेरुदण्डरूप धनुमें वायुरूप वाण योजना करके, प्रयोगमें सर्वजयी जो 'मैं' वही आत्माराम है। इस शरीररूपी रथमें