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दशम अध्याय कूटस्थमें पूर्व दिशामें श्वेत हस्तीका दर्शन होता है । यह अवस्था हम ( मैं ) से भिन्न नहीं है, इसलिये गजेन्द्रों के भीतर मैं ऐरावत हूँ। _ "नराणां च नराधिपम्”-नर समूह के भीतर मैं नराधिप हुँ। नर-'नृ' शब्द के अर्थ लेना पाना है; "अ"-नास्ति वाचक शब्द है। जिस अवस्थामें लेना पाना नहीं रहता, वही "नर" अवस्था है । लेना पाना जो कुछ है वह विषयमें ही है; विशुद्ध कमल पर्यन्त विषय हैं। विषयके ऊपर (आज्ञाचक्रमें ) उठनेसे ही श्रात्मोन्नतिका अधिकार
आता है। जिसने आत्मोन्नतिका अधिकार प्राप्त किया है, उसीको नर कहते हैं। फिर आज्ञाचक्रके ऊपर उठ कर न उतरनेसे ही अधिप ( राजा ) होता है। क्योंकि यहाँसे आत्मोन्नति भी होती है और अनासक्त-भावमें रहनेके लिये विषयादिको भी पालन किया जा सकता है। इस स्थानमें रह कर उत्तम पुरुष विष्णुका दर्शन करके तदाकारत्व प्राप्ति होती है । पालन जो करे वही राजा है। भगवान् विष्णु इस जगत्को (विषयादि भोगके स्थानको ) पालन करते हैं, तथा निलिप्त-भावसे रहते हैं, इस कारण वह योगेश्वर हैं। इसलिये कहता हूँ कि नर समूहके भीतर नरश्रेष्ठ राजा ही विष्णु हैं। और वही विष्णु “मैं” हूँ ॥२७॥
आयुधानामहं वन धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्वास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ २८ ॥ . अन्वयः। अहं आयुधानां वज्र (अस्मि ), धेनूना कामधुक् अस्मि; (अहं) प्रजनः कन्दर्पः अस्मि, सर्पाणां च ( मध्ये ) वासुकिः अस्मि ॥ २८ ।।
अनुवाद। मैं आयुध ( अस्त्र ) समूहके भीतर वज्र, धेनुओंके भीतर कामधेनु, प्रजागणों के उत्पत्तिका कारण स्वरूप कन्दर्प, और सपा के भीतर मैं वासुकि हूं ॥२८॥
व्याख्या। "आयुधानां अहं वन"-आयुधोंके भीतर मैं वन हूँ। आ+युध् +अ, जिससे युद्ध किया जाता है। अस्त्र, शस्त्र प्रभृति