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श्रीमद्भगवद्गीता पश्चात् नामका संयोग हुआ था। फिर जिससे जनम लिया, उसी सष्टिकर्ताको "मैं" मेरेमें मतवाला कर रक्खा । इस कारणसे "प्रजन" और "कन्दर्प" इन दोनों शब्दोंका ही प्रयोग स्थल “मैं” हूँ। __“सर्पाणामस्मि वासुकिः” सर्प कहते हैं जिन सब साँपके फण है (विषधर )। फणाधारी सर्पोके भीतर मैं वासुकि हूँ। वासुकि = वसु+क। वसु कहते हैं स्वप्रकाश मणि रत्नको,-जैसे हीरा, चुन्नी इत्यादि; और कमस्तक । फणाधारी सप (सर्प सब विषधर हैं) मस्तकमें स्वप्रकाश मणिरत्न रहेगा, ऐसा जो श्रेष्ठ सर्प है वही वासुकि है। स्वप्रकाश मैं बिना और कोई नहीं; इस कारण मायाकी जो कोई अवस्था मेरे साथ मिली रहे वही अवस्था श्रेष्ठ वा राजा शब्द वाच्य है। इसलिये मणिभूषित श्रेष्ठ सर्पो के भीतर मैं वासुकि हूँ।
मेरी अपनी कोई अवस्था नहीं है। माया नामसे कोई चीज भी आजतक पैदा नहीं हुई। केवल मान लेनेके लिये अन्तःकरणके धर्ममें जिसका स्फुरण होता है वही मायाका प्रकाश है (मा=नास्ति वाचक शब्द, या=अस्ति वाचक शब्द )। वह अन्तकरणके धर्म जब मुझको लेकर खेल करे, वही मायाकी श्रेष्ठ अवस्था है। गुरूपदेश अनुसार क्रिया करते करते साधक कूटस्थमें फणाधारी ज्योतिर्मय मणिभूषितमस्तक जिस सर्पका दर्शन करते हैं, वही सर्प वासुकिकी प्रतिकृति है ॥२८॥
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितृणामयंमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ २६ ॥ अन्वयः। अहं नागानां (निविषाणां राजा ) अनन्तः ( शेषः)। यादसां च ( अब्देवतानां च राजा) वरुणः अस्मि; अहं पितृणां अर्यमा च ( तथा ) संयमता यमः अस्मि ॥ २९॥
अनुवाद। मैं नागगणोंके भीतर अनन्त, और जलदेवताओं के भीतर वरुण हुँ; मैं पितृलोगोंके भीतर अय्यमा, और नियन्तृगणों के भीतर यम हूँ ।। २९ ।।