Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः
७५ (३) आत्रेमाणम् । आङ्+स्त्रिवु+मनिन् । आ+सिo+मन् । आ+ने+मन् । आत्रेमन्+अम् । आस्त्रेमान्+अम् । आस्त्रेमाणम्।।
यहां आङ् उपसर्गपूर्वक त्रिवु गतिशोषणयो:' (दि०प०) धातु से औणादिक मनिन् प्रत्यय है। इस सूत्र से वल् वर्ण (मनिन्) परे होने पर स्त्रिव्' धातु से वकार का लोप होता है। 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' (६।४।८) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ और 'अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से णत्व होता है। उणादयो बहुलम् (३।३।१) में बहुल-वचन से 'छ्वोः शूडनुनासिके च' (६।४।१९) से स्त्रिव्' धातु के वकार को ऊ आदेश नहीं होता है।
(४) ऊतम् । ऊयी+क्त। अय्+त। ऊo+त। ऊत+सु । ऊतम् ।
यहां ऊयी तन्तुसन्ताने' (भ्वा०आ०) धातु से निष्ठा' (३।२।१०२) से भूतकाल में 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से वल् वर्ण (त) परे होने पर 'ऊय्' धातु के यकार का लोप होता है। ऐसे ही 'क्नूयी शब्दे उन्दे च' (भ्वा०आ०) धातु से-क्नूतम् ।
(५) गौधेरः । गोधा+डस्+द्रक् । गौधा+ए । गौध्+एकर । गौधेर+सु । गौधेरः ।
यहां षष्ठी-समर्थ गोधा' शब्द से अपत्य अर्थ में गोधाया द्रक्' (४।१।११९) से द्रक् प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से द' के स्थान में एय्' आदेश इस सूत्र से वल् वर्ण (र) परे होने पर यकार का लोप होता है। किति च' (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि और यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के आकार का लोप होता है।
(६) पचेरन् । पच्+लिङ्। पच्+सीयुट्+ल। पच्+शप्+सीय+झ । पच्+अ+ईय्+रन् । पच्+अ+ईo+रन्। पचेरन्। .
यहां 'डुपचष् पाके' (भ्वा०उ०) धातु से लिङ् प्रत्यय और लिङ: सीयुट् (३।४।१०२) से उसे सीयुट्' आगम होता है। कर्तरि शप्' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण प्रत्यय है। झस्य रन्' (३।४।१०५) से 'झ' के स्थान में रन्' आदेश होता है। 'लिङ: सलोपोऽनन्त्यस्य' (७/२/७९) से सीयुट' के सकार का लोप होता है। इस सूत्र से वल् वर्ण (र) परे होने पर 'ईय्' के यकार का लोप होता है। ऐसे ही-'यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा० उ०) से-यजेरन् । लोपादेश:
(८) वेरपृक्तस्य।६७। प०वि०-वे: ६१ अपृक्तस्य ६।१ । अनु०-लोप इत्यनुवर्तते। अन्वयः-अपृक्तस्य वेर्लोपः।