Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
ईकारादेश-प्रतिषेधः
तन्न ।
(२४) न ल्यपि । ६६ ।
प०वि०-न अव्ययपदम्, ल्यपि ७।१ ।
अनु० - अङ्गस्य, आर्धधातुके, घुमास्थागापाजहातिसाम् इति चानुवर्तते ।
अन्वयः-घुमास्थागापाजहातिसाम् अङ्गानाम् आर्धधातुके ल्यपि यदुक्तं
अर्थः-घु-संज्ञकानां मास्थागापाजहातिसाम् अङ्गानाम् आर्धधातुके ल्यपि प्रत्यये परतो यदुक्तं तन्न भवति, ईकारादेशो न भवतीत्यभिप्रायः । उदा०- (घुः ) प्रदाय, प्रधाय । (मा) प्रमाय । ( स्था: ) प्रस्थाय । ( गाः) प्रगाय । (पाः) प्रपाय । ( जहाति ) (हा } प्रहाय । (सा: )
अवसाय |
आर्यभाषाः अर्थ- (घुमास्थागापाजहातिसाम् ) घु-संज्ञक और मा, स्था, गा, पा, जहाति {हा} तथा सा इन धातुओं से (अन्यस्य) भिन्न ( संयोगादे:) संयोग जिसके आदि में है उस (अङ्गस्य) अङ्ग को (आर्धधातुके) आर्धधातुक ( ल्यपि) ल्यप् प्रत्यय परे होने पर (न) जो पूर्व-कार्य कहा है वह नहीं होता, अर्थात् ईकारादेश नहीं होता है।
उदा०- (घु) प्रदाय | प्रदान करके । प्रधाय । प्रकृष्ट धारण-पोषण करके । (मा) प्रमाय । नाप-तौल करके । (स्था ) प्रस्थाय । प्रस्थान करके । (गा) प्रगाय । प्रशंसा करके । (पा) प्रपाय । प्रकृष्ट पान करके । ( जहाति ) (हा } प्रहाय । परित्याग करके । (सा) अवसाय । विराम करके ।
सिद्धि-प्रदाय । प्र+दाय+क्त्वा । प्र+दा+त्वा । प्र+दा+ ल्यप् । प्र+दा+य। प्रदाय+सु ।
प्रदाय +0 । प्रदाय ।
यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'डुदाञ् दाने' (जु०प०) घु-संज्ञक धातु से 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाले (३/४/३५ ) से 'क्त्वा' प्रत्यय है। 'कुगतिप्रादय:' (२।२।१८) से प्रादितत्पुरुष समास है। 'समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्' (७।१।३७) से 'क्त्वा' के स्थान में 'ल्यप्' आदेश है। इस सूत्र से घुमास्थागापाजहातिसां हनि' (६ । ४ । ६६ ) से विहित ईकार आदेश का प्रतिषेध किय गया है । 'क्त्वातोसुन्कसुनः' (१1१1४० ) से अव्यय - संज्ञा और ‘अव्ययादाप्सुप:' (२।४।८२) से 'सु' का लुक् होता है।
ऐसे ही- डुधाञ् धारण-पोषणयो:' (जु०उ०) आदि पूर्वोक्त धातुओं से 'प्रधाय आदि पद सिद्ध करें।