Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः
६४७
सिद्धि-(१) जग्मतुः । गम्+लिट् । गम्+ल्। गम्+तस् । गम्+अतुस् । ग्म्+अतुस् । गम्-ग्म्+अतुस्। ग-गम्+अतुस् । ज-ग्म्+अतुस् । जग्मतुः ।
यहां 'गम्लृ गतौं' (भ्वा०प०) धातु से परोक्षे लिट्' (३ ।२1११५ ) से 'लिट्' प्रत्यय है । 'परस्मैपदानां णल०' (३।४।८२) से 'तस्' के स्थान में 'अतुस्' आदेश होता '। इस सूत्र से 'गम्' अङ्ग की उपधा (अ) का अजादि कित् 'अतुस्' प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। 'असंयोगाल्लिट् कित्' (१1214 ) से 'अतुस्' प्रत्यय किद्वत् होता है। अङ्ग के उपधा लोप को 'द्विर्वचनेऽचिं ' (१1१/५९ ) से स्थानिवत् मानकर 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१।८) से 'गम्' धातु को द्विर्वचन होता है। 'कुहोश्चुः' (७/४/६२) से 'अभ्यास' के गकार को चवर्ग 'जकार' आदेश है। ऐसे ही 'उस्' प्रत्यय करने पर-जग्मुः ।
(२) जघ्नतुः | यहां 'हन हिंसागत्यो:' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् 'अतुस्' प्रत्यय है। 'अभ्यासाच्च' (७ 1३1५५) से अभ्यास से उत्तर 'हुन्' के हकार को कुत्व घकार आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही - जघ्नुः ।
(३) जज्ञे । जन्+लिट् । जन्+ल् । जन्+त। जन्+एश्। ज्न्+ए। जन्-जून्+ए । ज+ञ्+ए। जज्ञे।
यहां 'जनी प्रादुर्भाव' ( दि०प०) धातु से पूर्ववत् 'लिट्', इसके स्थान में 'त' आदेश और 'लिटस्तझोरेशिरेच्' (३।४।८१) से 'त' के स्थान में 'एश्' आदेश है। 'स्तो: श्चुना श्चुः' (८/४/४०) से नकार को चवर्ग 'अकार' आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । 'आताम्' प्रत्यय परे होने पर - जज्ञाते । 'झ' (इरेच् ) प्रत्यय परे होने पर - जज्ञिरे ।
(४) चरनतुः । 'खनु अवदारणे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् । 'उस्' प्रत्यय परे होने पर - चरनुः ।
(५) जक्षतुः । अद्+लिट् । अद्+ल् । घस्+ल् । घस्+तस् । घ्स्+अतुस् । घस्-घस्+अतुस्। घ- घ्स्+अतुस् । ज+ष्+अतुस् । जक्षतुः ।
यहां 'अद भक्षणे' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् लिट्', इसके स्थान में 'त' आदेश और इसके स्थान में 'अतुस्' आदेश है। 'खरि च' (८।४/५५) से घकार को चर् ककार और 'शासिवसिघसीनां च' (८ | ३ | ६०) से षत्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही 'उस्' प्रत्यय परे होने पर - जक्षुः ।
लोपादेश:
(२४) तनिपत्योश्छन्दसि । ६६ । प०वि०-तनि-पत्योः ६ । २ छन्दसि ७ । १ ।
सo - तनिश्च पतिश्च तौ तनिपती तयो:-तनिपत्योः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।