Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 717
________________ ७०० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-गार्गकम् । गर्ग+यञ् । गर्ग+य । गार्गस्य । गाये+तु । गाये+वु। गाये+अक। गाये+अक। गार्ग+अक । गार्गक+सु। गार्ग+अम् । गार्गकम् । यहां प्रथम गर्ग' शब्द से गर्गादिभ्यो यन्' (४।१।१०५) से गोत्रापत्य अर्थ में यञ्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् गोत्रप्रत्ययान्त 'गार्ग्य' शब्द से 'गोत्रोक्षोष्ट्र०' (४।२।३८) से समूह-अर्थ में वु' प्रत्यय है। युवोरनाको' (७।१।१) से 'वु' को 'अक' आदेश होता है। इस सूत्र से हल् (र) से उत्तरवर्ती, अपत्यसम्बन्धी, उपधाभूत यकार का लोप होता है। 'यस्येति च (६।४।१४८) से जो अकार का लोप होता है इसे 'असिद्धवदत्राभात (६।४।२२) से असिद्ध मानकर यकार उपधाभूत होता है। ऐसे ही वत्स' शब्द से-वात्सकम्। उपधालोप: (२४) क्यच्च्योश्च।१५२। प०वि०-क्य-च्च्योः ७।२ च अव्ययपदम्। स०-क्यश्च च्विश्च तौ क्यच्ची, तयो:-क्यच्च्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-अङ्गस्य, भस्य, लोप:, य:, उपधाया:, हल, आपत्यस्य इति चानुवर्तते। अन्वय:-भस्य अङ्गस्य हल आपत्यस्य उपधाया य: क्यच्व्योश्च लोपः। अर्थ:-भसंज्ञकस्य अगस्य हल उत्तरस्य आपत्यस्य-अपत्यसम्बन्धिन उपधाभूतस्य यकारस्य क्ये च्वौ प्रत्यये च परतो लोपो भवति । उदा०- (क्य:) आत्मनो गार्यमिच्छति-गार्गीयति। वात्सीयति (क्यच्) । गार्ग्य इवाचरति-गार्गायते । वत्सायते (क्यङ्) । (च्वि:) अगार्यो गार्यो भूत इति-गार्गीभूत: । वात्सीभूत: । आर्यभाषा: अर्थ-(भस्य) भ-संज्ञक (अङ्गस्य) अङ्ग के (हल.) हल् से उत्तरवर्ती (आपत्यस्य) अपत्य-अर्थसम्बन्धी (उपधायाः) उपधाभूत (य:) यकार का (क्यच्च्यो:) क्य औ च्चि प्रत्यय परे होने पर (च) भी (लोप:) लोप होता है। उदा०-(क्य) गार्गीयति । अपने गाये की इच्छा करता है। वात्सीयति । अपने गार्य की इच्छा करता है। (क्यच्)। गार्गायते। गार्य के समान आचरण करता है। वत्सायते। वात्स्य के समान आचरण करता है (क्यङ्)। (च्चि) गार्गीभूतः । जो गाये नहीं है वह गार्ग्य बना हुआ है। वात्सीभूत: । जो वात्स्य नहीं है वह वात्स्य बना हुआ है।

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