Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 740
________________ षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः ७२३ से प्रकृतिभाव निपातित है । 'नस्तद्धितें' (६ । ४ । ११४) से टि-लोप (इन्) प्राप्त था । ऐसे ही हतिन् ' शब्द से हास्तिनायनः । (२) आथर्वणिकः । अथर्वन्+ठक् । आथर्वन्+इक। आथर्वणिक+सु। आथर्वणिकः । यहां 'अथर्वन्' शब्द से 'वसन्तादिभ्यष्ठक्' (४/२/६३ ) से 'ठक्' प्रत्यय है । 'ठस्येक:' (७1३1५०) से 'ठ्' के स्थान में 'इक्' आदेश होता है। इस सूत्र से ठ (इक) प्रत्यय परे होने पर प्रकृतिभाव निपातित है, पूर्ववत् टिलोप प्राप्त था । (३) जिह्माशिनेय: । जिह्माशिन् +ढक् । जैह्माशिन् + एय । जैह्माशिनेय+सु । जैह्माशिनेयः । यहां 'जिह्माशिन्' शब्द से 'शुभ्रादिभ्यश्च' (४ | १ | १२३) से अपत्य- अर्थ में 'ढक्' प्रत्यय है । 'आयनेय०' (७।१।२) से 'ढ्' के स्थान में 'एय्' आदेश होता है। इस सूत्र से ढक् (एय्) प्रत्यय परे होने पर प्रकृतिभाव निपातित है। पूर्ववत् टिलोप प्राप्त था । (४) वासिनायनिः । वासिन्+फिञ् । वासिन्+आयन् इ । वासिनायिनि + सु । वासिनायनिः । यहां 'वासिन्' शब्द से 'उदीचां वृद्धादगोत्रात्' (४ । १ । १५७ ) से अपत्य-अर्थ में 'फिञ्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । (५) श्रौणहत्यम् । भ्रूणहन् + ष्यञ् । भ्रूणहन्+य । भ्रौणहत्+य । श्रौणहत्य+सु । भ्रौणहत्यम् । यहां 'भ्रूणहन्' शब्द से 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' (५1१1१२४) से 'ष्यञ्' प्रत्यय है। यहां 'हन्' को तकारादेश निपातित है । (६) धैवत्यम् | यहां 'धीवन्' शब्द से पूर्ववत् ष्यञ्' प्रत्यय और तकारादेश निपातित है। (७) सारवम् । सरयू+अण् । सारयू+अ । साऊ+अ । सार् ओ+अ । सारव+सु । सारवम् । यहां 'सरयू' शब्द से 'तत्र भव:' ( ४ | ३ |५३) से भव- अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है । इस सूत्र से ‘सरयू' के अय्-शब्द का लोप निपातित है । 'ओर्गुण:' ( ६ । ४ । १४६) से अङ्ग को गुण और 'एचोऽयवायाव:' ( ६ । १।७८) से अव्- आदेश होता है। (८) ऐक्ष्वाकः । इक्ष्वाकु+अञ् । इक्ष्वाकु+अ। ऐक्ष्वाक्+अ । ऐक्ष्वाक+सु। ऐक्ष्वाकः यहां 'इक्ष्वाकु' शब्द 'जनपदशब्दात् क्षत्रियादञ्' (४ 1१1१६८) से अपत्य-अर्थ में 'अञ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'इक्ष्वाकु' का उकार लोप निपातित है। इक्ष्वाकुषु जनपदेषु भव:- ऐक्ष्वाकः । इक्ष्वाकु जनपद में होनेवाला। यहां 'कोपधादण्' (४/२/१३२ ) से भव- अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। उकार का लोप पूर्ववत् निपातित है।

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