Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 731
________________ ७१४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् 'नस्तद्धिते (६।४।१४४) से प्राप्त टि-भाग (इन्) का लोप नहीं होता है। (२) सांराविणम् । 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'रु शब्दे' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् । (३) साम्मार्जिनम् । 'सम्' उपसर्गपूर्वक मृजूष शुद्धौ' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत्। (४) स्राग्विणम्। यहां प्रथम स्रक्' शब्द से 'अस्मायामेधास्रजो विनिः' (५।२।१२१) से विनि' प्रत्यय है। तत्पश्चात् स्रग्विन्' शब्द से तस्येदम् (४।३।१२०) से इदम्-अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। प्रकृतिभावः (३७) गाथिविदथिकेशिगणिपणिनश्च ।१६५ प०वि०-गाथि-विदथि-केशि-गणि-पणिन: १।३ च अव्ययपदम् । स०-गाथी च विदथी च केशी च गणी च पणी च ते-गाथिविदथिकेशिगणिपणिन: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-अङ्गस्य, भस्य, प्रकृत्या, इन्, अणि इति चानुवर्तते । अन्वय:-गाथिविदथिकेशिगणिपणिन इन भानि अगानि च अणि प्रकृत्या। अर्थ:-गाथिविदथिकेशिगणिपणिन इत्येतानि इन्नन्तानि भसंज्ञकानि अङ्गानि च अणि प्रत्यये परत: प्रकृत्या भवन्ति। उदा०-(गाथी) गाथिनोऽपत्यम्-गाथिन:। (विदथी) विदथिनोऽपत्यम्-वैदथिन: । (केशी) केशिनोऽपत्यम्-केशिनः । (गणी) गणिनोऽपत्यम्गाणिनः । (पणी) पणिनोऽपत्यम्-पाणिन: । अपत्यार्थोऽयमारम्भः । आर्यभाषा: अर्थ-(गाथि०पाणिन:) गाथिन्, विदथिन्, केशिन्, गणिन्, पणिन् ये (इन्) अन्-अन्त (भानि) भ-संज्ञक (अङ्गानि) अङ्ग (च) भी (अणि) अण् प्रत्यय परे होने पर (प्रकृत्या) प्रकृतिभाव से रहते हैं। उदा०-(गाथी) गाथिन: । गाथी का पुत्र। (विदथी) वैदथिन: । विदथी का पुत्र। (केशी) केशिनः । केशी का पुत्र । (गणी) गाणिनः । गणी का पुत्र । (पणी) पाणिनः । पणी का पुत्र । और पाणिन का पुत्र पाणिनि मुनि है, जिसकी यह 'अष्टाध्यायी' नामक अद्भुत रचना है।

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