Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् प्रकृतिभावः
(३६) अन् ।१६७। वि०-अन् १।१। अनु०-अङ्गस्य, भस्य, प्रकृत्या, अणि इति चानुवर्तते । अन्वय:-अन् भम् अङ्गम् अणि प्रकृत्या।
अर्थ:-अन् अन्नन्तं भसंज्ञकम् अङ्गम् अणि प्रत्यये परत: प्रकृत्या भवति।
उदा०-साम्नोऽपत्यम्-सामन: । वेम्नोऽपत्यम्-वैमनः । सुत्वनोऽपत्यम्सौत्वनः । जित्वनोऽपत्यम्-जैत्वन: । सामान्येनाणमात्रेऽपत्येऽनपत्ये चायं विधिः।
आर्यभाषा: अर्थ- (अन्) अन् जिसके अन्त में है वह (भम्) भ-संज्ञक (अङ्गम्) अङ्ग (अणि) अण् प्रत्यय परे होने पर (प्रकृत्या) प्रकृतिभाव से रहता है।
उदा०-सामन: । सामा का पुत्र। वैमनः । वेमा का पुत्र । सौत्वनः । सुत्वा का पुत्र। जैत्वनः । जित्वा का पुत्र।
यह सामान्य से 'अण्' प्रत्ययमात्र अर्थात् अपत्य और अनपत्य अर्थ में विधि है। सिद्धि-(१) सामन: । सामन्+अण् । सामन्+अ। सामन+सु। सामनः ।
यहां सामन्' शब्द से तस्यापत्यम्' (६।१।९२) से अपत्य-अर्थ में 'अण्' प्रत्यय के परे होने पर अन्नन्त सामन्' शब्द इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है, अर्थात् नस्तद्धिते (६।४।१४४) से प्राप्त टि-लोप नहीं होता है। ऐसे ही वमन्' शब्द से-वैमनः ।
(२) सौत्वन: । यहां प्रथम पुत्र अभिषवे' (स्वा०3०) धातु से 'सुयजोर्ध्वनिप्' (३।२।१०३) से ड्वनिप्' प्रत्यय है और 'हस्वस्य पिति कृति तुक्' (६।१।७१) से तुक्’ आगम होता है। तत्पश्चात् सुत्वन्' शब्द से शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) जैत्वन: । यहां प्रथम जि जये' (भ्वा०प०) धातु से 'अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते (३।२।७५) से क्वनिप्' प्रत्यय और पूर्ववत् तुक्’ आगम होता है। तत्पश्चात् 'जित्वन्' शब्द से शेष कार्य पूर्ववत् है। प्रकृतिभावः
(४०) ये चाभावकर्मणोः ।१६८। प०वि०-ये ७१ च अव्ययपदम्, अभावकर्मणो: ७।२।