Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 718
________________ ७०१ षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः सिद्धि-(१) गार्गीयति । गाये+क्यच् । गाये+य। गा! ई+य। गार्गई+य । गार्गीय लट्। गार्गीयति। यहां प्रथम 'गर्ग' शब्द से 'गर्गादिभ्यो यज्ञ (४।१।१०५) से गोत्रापत्य अर्थ में 'यञ्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् गोत्रप्रत्ययान्त 'गार्य' शब्द से 'सुप आत्मन: क्यच् (३।११८) से आत्म-इच्छा अर्थ में क्यच्' प्रत्यय है। क्यच्' प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से 'हल' (र) से उत्तरवर्ती, अपत्यसम्बन्धी उपधाभूत 'यकार' का लोप होता है। क्यचि च (७।४।३३) से अकार को ईकार आदेश होता है। ऐसे ही-वात्सीयति। (२) गार्गायते। यहां उपमानवाची 'गार्ग्य' शब्द से आचार-अर्थ में कर्तुः क्यङ् सलोपश्च' (३।१।११) से क्यङ्' प्रत्यय है। प्रत्यय के ङित् होने से 'अनुदात्तडित आत्मनेपदम् (१।३।१२) से आत्मनेपद होता है। अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः' (७।४।२५) से अकार को दीर्घ होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-वात्सायते । काशिकावृत्ति में गार्गीयते, वात्सीयते यह अपपाठ है।। (३) गार्गीभूतः । यहां 'गार्य' शब्द से अभूततद्भावे कृभ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि वि:' (५।४ १५०) से अभूत तद्भाव अर्थ में 'च्चि' प्रत्यय है। 'अस्य च्वौ' (७।४।३२) से अकार को ईकार आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। छस्य लुक (२५) बिल्वकादिभ्यश्छस्य लुक् ।१५३। प०वि०-बिल्वक-आदिभ्य: ५।३ छस्य ६१ लुक् १।१। स०-बिल्वक आदिर्येषां ते बिल्वकादयः, तेभ्य:-बिल्वकादिभ्यः (बहुव्रीहि:)। अनु०-अङ्गस्य, भस्य, तद्धिते इति चानुवर्तते। अन्वय:-बिल्वकादिभ्यो भस्य अङ्गस्य छस्य तद्धिते लुक् । अर्थ:-बिल्वकादिभ्य उत्तरस्य भसंज्ञकस्य अङ्गस्य छ-प्रत्ययस्य तद्धिते प्रत्यये परतो लुम् भवति।। उदा०-बिल्वा यस्यां सन्तीति-बिल्वकीया। बिल्वकीयायां भवा:बिल्वका: । वेणुकीया-वैणुका: । वेत्रकीया-वैत्रका: । वेतसकीया-वैतका:। तृणकीया-तार्णकाः । इक्षुकीया-ऐक्षुका: । काष्ठकीया-काष्ठका: । कपोतकीयाकापोतकाः।

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