Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 670
________________ षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (अङ्गात्) अङ्ग से परे (अडित:) डित् से भिन्न (हे.) हि-प्रत्यय के स्थान में (च) भी (धि:) धि-आदेश होता है। उदा०-सोम रारन्धि (ऋ० १।९१।१३)। रारन्धि-तू रमण कर। अस्मभ्यं तद्धर्यश्व प्रयन्धि (ऋ० ३।३६ १९)। प्रयन्धि-तू प्रकर्षत: उपरमण कर। युयोध्यस्मजुहुराणमेन: (ऋ० १।१८९१) । युयोधि-तू दूर कर। सिद्धि-(१) रारन्धि । रम्+लोट् । रम्+ल। रम्+सिप्। रम्+शप्+सि। रम्+o+सि। रम्-रम्+सि। र-रम्+धि। रा-रम्+धि। रारन्धि। यहां रमु क्रीडायाम्' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् 'लोट्' प्रत्यय है। 'व्यत्ययो बहुलम्' (३।१।८५) से व्यत्यय से छन्द में परस्मैपद, 'शप्' को 'मुलु' और अभ्यास को दीर्घ होता है। वा छन्दसि' (३।४।८८) से हि' आदेश पित्' है अत: यह सार्वधातुकमपित् (१।२।४) से द्वित् नहीं होता है और इसके अडित् होने से 'अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्ङिति (६।४।३७) से अनुनासिक मकार का लोप नहीं होता है। (२) प्रयन्धि। प्र+यम्+लोट् । प्र+यम्+ल। प्र+यम्+सिप्। प्र+यम्+शप्+सि । प्र+यम् +o+सि । प्र+यम्+धि। प्रयन्धि। यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'यम उपरमे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लोट' प्रत्यय है। 'बहुलं छन्दसि' (२।४।७३) से शप्’ का लुक् होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (३) युयोधि । यु-लोट् । यु+ल। यु+सिप् । यु+शप्+सि । यु+o+सि । यु-यु+o+धि। यु-यु+धि । यु-यो+धि। युयोधि। यहां 'यु मिश्रणेऽमिश्रणे च' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लोट्' प्रत्यय है। 'बहुलं छन्दसि' (२।४ १७६) से शप्’ को ‘श्लु' और 'श्लौं' (६।१ ।१०) से 'यु' धातु को द्विर्वचन होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। लुक्-आदेश: (२६) चिणो लुक।१०४। प०वि०-चिण: ५।१ लुक् १।१ । अनु०-अङ्गस्य इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अङ्गात् चिणो लुक् । अर्थ:-अङ्गात् परस्य चिण उत्तरस्य प्रत्ययस्य लुग् भवति। उदा०-तेन अकारि । तेन अहारि। तेन अलावि। तेन अपाचि। आर्यभाषा: अर्थ-(अङ्गात्) अग से परे (चिण्) चिण से उत्तरवर्ती प्रत्यय को (लुक्) लुक् आदेश होता है।

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