Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
६३२
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यण-आदेश:
(८) ओः सुपि।८३। प०वि०-ओ: ६१ सुपि ७।१।
अनु०-अङ्गस्य, अचि, अनेकाच:, असंयोगपूर्वस्य इति चानुवर्तते। 'धातोः' इति च मण्डूकोत्प्लुत्या पूर्ववदनुवर्तते, तेन च संयोगो विशेष्यते।
अन्वय:-धातोरसंयोगपूर्वस्य ओरनेकाचोऽङ्गस्य अचि सुपि यण् ।
अर्थ:-धातोरवयव: संयोगो यस्मादुकारात् पूर्वो न भवति, तदन्तस्यानेकाचोऽङ्गस्य अजादौ सुपि प्रत्यये परतो यणादेशो भवति।।
उदा०-खलप्वौ, खलप्व: । शतस्वी, शतस्व: । सकृल्ल्वौ , सकृल्ल्व : ।
आर्यभाषा: अर्थ-(धातो:) धातु का अवयवभूत (असंयोगपूर्वस्य ओ:) संयोग जिस उकार वर्ण से पूरी नहीं है, उस उकारान्त (अनेकाच:) अनेक अचोंवाले (अङ्गस्य) अङ्ग को (अचि) अजादि (सुपि) सुप् प्रत्यय परे होने पर (यण्) यण आदेश होता है।
उदा०-खलप्वौ। दो खलिहान को शुद्ध करनेवाले। खलप्वः । सब खलिहान को शुद्ध करनेवाले। शतस्वौ । दो सौ को उत्पन्न करनेवाले। शतस्व: । सब सौ को उत्पन्न करनेवाले। सकल्ल्वौ । दो एक बार छेदन करनेवाले। सकृल्ल्व: । सब एक बार छेदन करनेवाले।
सिद्धि-खलप्वौ। खल+पू+क्विप् । खल+पू+वि० । खलपू+० । खलपू+औ। खल+औ। खलप्वौ।
__यहां प्रथम खल-उपपद 'पून पवने (क्रयाउ०) धातु से 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते (३।२।१७८) से 'क्विप्' प्रत्यय है। वरपृक्तस्य' (६।१।६६) से विप्' का सर्वहारी लोप होता है। तत्पश्चात् खलपू' शब्द से द्वित्व-विवक्षा में स्वौजसः' (४।१।२) से
औ' प्रत्यय है। इस सूत्र से धातु का अवयवभूत संयोग जिसके पूर्व नहीं है उस उकारान्त तथा अनेक अचोंवाले खलपू' अङ्ग को 'यण' (व्) आदेश होता है। ऐसे ही 'जस् प्रत्यय परे होने पर-खलप्वः ।
(२) शतस्वौ। यहां प्रथम शत-उपपद पङ् प्राणिगर्भविमोचने (अदा०आ०) धातु से सत्सूद्विष०' (३।२।६१) से विप्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही 'जस्' प्रत्यय परे होने पर-शतस्वः।
(३) सकृल्ल्चौ । यहां प्रथम सकृत्-उपपद 'लून छेदने (क्रया०3०) धातु से 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते' (३।२।१७८) से स्विप' प्रत्यय है। तोर्लि' (८।४।६०) से तकार को परसवर्ण लकार होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही जस्' प्रत्यय परे होने पर-सकृल्ल्वः ।