Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा०
- साग्निर्धूम: । धूम (धूंवा) अग्नि के साथ वर्तमान है । यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः' जहां-जहां धूम होता है वहां-वहां अग्नि होती है। यहां धूम और अग्नि दो सहयुक्त पदार्थ हैं, इनमें धूम प्रधान और अग्नि द्वितीय अर्थात् अप्रधान और अनुपाख्य = अनुमेय है। धूम को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है। सवृष्टिर्मेघः । मेघ वृष्टि के साथ वर्तमान है। 'मेघोन्नतिं दृष्ट्वाऽनुमीयते भविष्यति वृष्टिरिति ।' मेघों की वृद्धि को देखकर यह अनुमान किया जाता है कि वृष्टि होगी। यहां वृष्टि और मेघ दो सहयुक्त पदार्थ हैं, इनमें मेघ प्रधान और वृष्टि अर्थात् द्वितीय अप्रधान है और अनुपाख्य = अनुमेय है।
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सिद्धि-साग्निः । यहां सह और अग्नि शब्दों का तेन सहेति तुल्ययोगे (२।२।२८) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से 'सह' शब्द के स्थान में अनुपाख्य (अनुमेय ) तथा द्वितीय = अप्रधानवाची अग्नि शब्द उत्तरपद होने पर स-आदेश होता है। ऐसे ही- सवृष्टिः ।
विशेषः यहां काशिका में 'साग्निः कपोत:, सपिचाशा वात्या' और 'सराक्षसीका शाला' उदाहरण दिये गये हैं। कपोत को देखकर अग्नि का अनुमान, वात्या ( भबूळिया ) को देखकर पिशाच का अनुमान और शाला (फूटा ढूंढ़) को देखकर राक्षसी का अनुमान करना अन्धविश्वास से ग्रस्त है ।
स- आदेश:
(४) अव्ययीभावे चाकाले । ८१ । प०वि० - अव्ययीभावे ७ । १ च अव्ययपदम्, अकाले ७।१ स०-न काल इति अकाल:, तस्मिन् अकाले ( नञ्तत्पुरुषः ) । अनु० - उत्तरपदे, सहस्य, स इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - अव्ययीभावे सहस्य अकाले उत्तरपदे च सः ।
अर्थ:- अव्ययीभावे समासे सह- शब्दस्य स्थाने अकालवाचिनि शब्दे उत्तरपदे च स - आदेशो भवति ।
उदा०-युगपच्चक्रमिति सचक्रम् । सचक्रं धेहि । सधुरं प्राज । महाभाष्यस्यान्त इति समहाभाष्यम् । समहाभाष्यं व्याकरणमधीते ।
आर्यभाषाः अर्थ- (अव्ययीभावे) अव्ययीभाव समास में (सहस्य ) सह शब्द के स्थान में (अकाले) कालवाची शब्द से भिन्न ( उत्तरपदे) उत्तरपद होने पर (च) भी (सः) स- आदेश होता है।
उदा० - सचक्रं धेहि । तू युगपत् (एक साथ) चक्र को धारण कर । सधुरं प्राज । तू युगपत् धुर् (जुआ) को दूर फेंक । समहाभाष्यं व्याकरणमधीते । वह महाभाष्यपर्यन्त व्याकरण पढ़ता है।