Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः
६०३ सिद्धि-(१) आक्षीणः । आड्+क्षि+क्त। आ+क्षि+त। आ+क्षी+न। आ+क्षी+ण। आक्षीण+सु। आक्षीणः।
यहां आङ्-उपसर्गपूर्वक क्षि क्षये (भ्वा०प०) और क्षि निवासगत्योः' (स्वा०प०) धातु से 'निष्ठा' (३।२।१०२) से भूतकाल अर्थ में 'क्त' प्रत्यय है और यह 'गत्यर्थाकर्मक०' (३।४।७२) से अकर्मक क्षि' धातु से कर्ता-अर्थ में है। इस सूत्र से क्षि' को आर्धधातुक, ण्यत्-अर्थ से भिन्न कर्तृ-अर्थक, निष्ठा-संज्ञक क्त' प्रत्यय परे होने पर दीर्घ होता है। 'क्षियो दीर्घात्' (८।२।४६) से निष्ठा-तकार को नकार और इसे 'अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से णत्व होता है। ऐसे ही-प्रक्षीणः । परिक्षीणः ।
(२) प्रक्षीणम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त क्षि' धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है और यह 'क्तोऽधिकरणे च धौव्यगतिप्रत्यवसानार्थेभ्यः' (३।४।७६) से अधिकरण-अर्थ में है। इस सूत्र से धौव्यार्थक-अकर्मक झि' धातु को आर्धधातुक, ण्यत्-अर्थ से भिन्न अधिकरण-अर्थक, निष्ठा-संज्ञक क्त' प्रत्यय परे होने पर दीर्घ होता है। 'अधिकरणवाचिनश्च' (२।३।६८) से षष्ठीविभक्ति होती-प्रक्षीणमिदं देवदत्तस्य । दीर्घादेश-विकल्पः
(१६) वाऽऽक्रोशदैन्ययोः।६१।। प०वि०-वा अव्ययपदम्, आक्रोश-दैन्ययोः ७।२।
स०-दीनस्य भाव:-दैन्यम् (दीनता)। आक्रोशश्च दैन्यं च ते आक्रोशदैन्ये, तयो:-आक्रोशदैन्ययोः (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-अङ्गस्य, आर्धधातुके, दीर्घः, क्षिय:, निष्ठायाम्, अण्यदर्थे इति चानुवर्तते।
अन्वय:-क्षियोऽङ्गस्य आर्धधातुके अण्यदर्थे निष्ठायां वा दीर्घ:, आक्रोशदैन्ययोः।
अर्थ:-क्षियोऽङ्गस्य आर्धधातुकेऽण्यदर्थे निष्ठा-संज्ञके प्रत्यये परतो विकल्पेन दीर्घो भवति, आक्रोशे दैन्ये च गम्यमाने।
उदा०-(आक्रोश:) त्वं क्षितायुरेधि। त्वं क्षीणायुरेधि। (दैन्यम्) क्षितक: । क्षीणक: । क्षितोऽयं तपस्वी। क्षीणोऽयं तपस्वी।
आर्यभाषा: अर्थ- (क्षियः) क्षि (अङ्गस्य) अङ्ग को (आर्धधातुके) आर्धधातुक (अण्यदर्थे) ण्यत्-अर्थ से भिन्न (निष्ठायाम्) निष्ठा-संज्ञक प्रत्यय परे होने पर (वा) विकल्प से (दीर्घ:) दीर्घ आदेश होता है (आक्रोशदैन्ययोः) यदि वहां आक्रोश भर्त्सना और दीनता अर्थ की प्रतीति हो।