Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (सहस्य) सह शब्द के स्थान में (मादस्थयोः) माद और स्थ (उत्तरपदे) उत्तरपद परे होने पर (सध:) सध-आदेश होता है।
__ उदा०-(माद) सधमादो द्युम्निनीराप: (यजु० १० १७)। साथ हर्षित होनेवाली, प्रशस्त धनवाली और जल के समान शान्त स्वभाववाली स्त्रियां। (स्थ) सधस्था: (तै०सं० ५१७।७।१)। साथ अवस्थित रहनेवाले।
सिद्धि-(१) सधमाद: । यहां सह और माद शब्दों का तेन सहेति तुल्ययोगे (२।२।२८) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से वेदविषय में सह के स्थान में माद उत्तरपद होने पर सध आदेश होता है। माद' शब्द में 'मदी हर्षग्लेपनयो:' (भ्वा०प०) धातु से 'भावे से भाव अर्थ में 'घञ्' प्रत्यय है।
(२) सधस्थाः । यहां सह और स्थ शब्दों का उपपदमतिङ्' (२।२।१९) से उपपदतत्पुरुष समास है। 'स्थ:' शब्द में छा गतिनिवृत्तौ (भ्वा०प०) धातु से 'सुपि स्थ:' (३।२।४) से क’ प्रत्यय है। इस सूत्र से वेदविषय में सह' के स्थान में स्थ' उत्तरपद होने पर सध' आदेश होता है। ईत्-आदेश:
(२०) द्वयन्तरुपसर्गेभ्योऽप ईत्।६७। प०वि०-द्वि-अन्तर्-उपसर्गेभ्य: ५।३ अप: ६।१ ईत् १।१।
स०-द्विश्च अन्तश्च उपसर्गश्च ते व्यन्तरुपसर्गाः, तेभ्य:- व्यन्तरुपसर्गेभ्य: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-उत्तरपदे इत्यनुवर्तते। अन्वय:-व्यन्तरुपसर्गेभ्योऽप उत्तरपदस्य ईत् । अर्थ:-द्वयन्तरुपसर्गेभ्य: परस्याप उत्तरपदस्य ईदादेशो भवति ।
उदा०-(द्वि:) द्विर्गता आपो यस्मिन्निति द्वीपम्। (अन्त:) अन्तर्गता आपो यस्मिन्निति अन्तरीपम्। (उपसर्ग:) संगता आपो यस्मिन्निति समीपम्। विगता आपो यस्मिन्निति वीपम्। निगता आपो यस्मिन्निति नीपम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(द्वयन्तरुपसर्गेभ्य:) द्वि, अन्तर् और उपसर्ग से परे (अप:) अप् (उत्तरपदस्य) उत्तरपद के (ईत्) ईकार आदेश होता है।