Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५६३ लोप होता है। न ध्याख्यापूमूर्छिमदाम्' (८।२।५७) से निष्ठातकार को नकरादेश और 'आदितश्च' (८।३।७७) से इट्-आगम का प्रतिषेध है। हलि च' (८।२७७) से रेफान्त की उपधा को दीर्घ होता है। ऐसे ही क्तवतु' प्रत्यय में-मूर्तवान् । ऐसे ही हुर्छा कौटिल्ये' (भ्वा०प०) धातु से-हूर्णः, हूर्णवान् । 'रदाभ्यां निष्ठातो न: पूर्वस्य च दः' (८।२।४२) से निष्ठा के तकार को नकार और 'रषाभ्यां णो न: समानपदे:' (८।४।१) से णत्व होता है।
(३) मूर्ति: । यहां 'मुर्छ' धातु से स्त्रियां क्तिन्' (३।३।९४) से 'क्तिन्’ प्रत्यय हे। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही हुर्छ' धातु से-हूर्तिः ।
(४) तू: । यहां तुर्वी हिंसार्थ:' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् क्विम्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'तु' के रेफ से परवर्ती वकार को लोप होता है। ऐसे ही-क्त, क्तवतु और क्तिन् प्रत्यय करने पर-तूर्णः, तूर्णवान्, तूर्ति: । 'धुर्वी हिंसार्थ:' (भ्वा०प०) धातु से-धूः, धूर्णः, धूर्णवान्, धूर्तिः।
असिद्धवत्-प्रकरणम् असिद्धवत्-अधिकार:
(१) असिद्धवदत्राभात्।२२। प०वि०-असिद्धवत् अव्ययपदम्, अत्र अव्ययपदम्, आ अव्ययपदम्, भात् ५।१।
स०-न सिद्धमिति असिद्धम्, असिद्धेन तुल्यं वर्तते इति असिद्धवत् (नञ्तत्पुष:)।
सिद्धशब्दोऽत्र निष्पन्नपर्याय: । 'आ भात्' इत्यत्राभिविधावर्थे आङ् वेदितव्यः।
अर्थ:-अत्र एकाश्रये आ भात् अर्थाद् भाधिकारपर्यन्तम् आ . अध्यायपरिसमाप्तेर्यद् वक्ष्यति तद् असिद्धवद् भवतीत्यधिकारोऽयम् ।
'आभीये कार्ये कर्तव्ये जातमाभीयमसिद्धं स्यादित्यधिकारोऽयम्' इति गुरुवरपण्डितविश्वप्रियशास्त्रिण: प्राहुः ।
उदा०-एधि। शाधि । आगहि । जहि ।
आर्यभाषा: अर्थ- (अत्र) यहां एक आश्रय=निमित्त में (आ भात्) भ-अधिकार पर्यन्त अर्थात् इस अध्याय की समाप्ति तक पाणिनि मुनि जो कहेंगे वह (असिद्धवत्) असिद्ध अनिष्पन्न के तुल्य होता है, यह अधिकार सूत्र है।