Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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१८३ उदा०-(गौ:) गा, गवे, गोभ्याम् । सुगुना, सुगवे, सुगुभ्या॑म् । (श्वा) शुना, शुने, श्वभ्याम् । परमशुना, परमशुने, परमश्वभ्या॑म् । (साववर्ण:) येभ्य:, तेभ्य:, केभ्यः । (राट) राजा, परमराजे। (अङ्) प्राञ्चा, प्राङ्भ्याम् । (क्रुङ्) क्रुञ्चा, परमक्रुचा । (कृत्) कृता, परमकृता ।
आर्यभाषा: अर्थ-इस स्वर प्रकरण में (गो०कृद्भ्यः) गो, श्वन्, साववर्ण प्रथमा-विभक्ति के एकवचन 'सु' प्रत्यय परे होने पर जो अ-वर्णान्त है, वह शब्द, राट्, अड्, क्रुङ् कृत् इन शब्दों से उत्तर जो स्वर विहित किया गया है, वह (न) नहीं होता है।
उदा०-(गौ) गो । गौ के द्वारा। गवे। गौ के लिये। गोभ्याम् । दो गौओं के लिये/से। सुगुना । उत्तम गौ वाले के द्वारा। सुगवे। उत्तम गौवाले के लिये। सुगुभ्याम् । दो उत्तम गौवालों के लिये/से। (श्वन्) शुनो। कुत्ते के द्वारा। शुने। कुत्ते के लिये। श्वभ्याम् । दो कुत्तों के लिये/से। परमशुनो । उत्तम कुत्तेवाले के द्वारा। परमशुने। उत्तम कुत्तेवाले के लिये। परमश्वभ्याम् । दो उत्तम कुत्तेवालों के लिये/से। (साववर्ण) प्रथमा-विभक्ति के एकवचन 'सु' प्रत्यय परे होने पर जो अ-वर्णान्त है-येभ्यः । जिनके लिये/से। तेभ्य: । उनके लिये/से। केभ्य: । किनके लिये/से। (राट) राजा। राजा के द्वारा। परमराजे। उत्तम राजा के लिये। (अ) प्राञ्चा। पूर्व दिशा से। प्राभ्याम् । दो पूर्व-दिशाओं से। (कुङ्) क्रुञ्चो । क्रौंच पक्षी के द्वारा । परमञ्चो । उत्तम क्रौंच पक्षी के द्वारा। (कृत) कृता । कर्ता के द्वारा। परमकता । उत्तम कर्ता के द्वारा।
सिद्धि-(१) गर्वा । गो+टा। गव्+आ। गवा।
यहां 'गो' शब्द से 'टा' प्रत्यय है। 'सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः' (६ ।१ ।१६२) से 'टा' विभक्ति को अन्तोदात्त स्वर प्राप्त था, उसका सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। 'फिषोऽन्तोदात्त:' (फिट० ११) से गो' शब्द अन्तोदात्त है। 'अनुदात्तौ सुपितौ' (३।१।४) से टा-विभक्ति अनुदात्त है अत: यही स्वर रहता है। गवा। उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६५) से अनुदात्त को स्वरित आदेश होता है। ऐसे ही-गवे, गोभ्याम् ।
(२) सुगुनी । शोभना गावो यस्य स:-सुगु:, तेन-सुगुना ।
यहां 'अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्यामनित्यसमासे' (६।१।१६३) से 'टा' विभक्ति को विकल्प से अन्तोदात्त स्वर प्राप्त था, उसका इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। अत: 'नसुभ्याम्' (६।२।१७१) से प्राप्त उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। ऐसे ही-सुगवे, सुगुभ्याम्।
(३) शुा । श्वन्+टा। श् उ अन्+आ। शुन्+आ। शुना।
यहां श्वन्' शब्द से 'टा' प्रत्यय है। 'श्वयुवमघोनामतद्धिते' (६।४।१३३) से सम्प्रसारण और सम्प्रसारणाच्च' (६।१।१०५) से अकार को पूर्वरूप एकादेश होता है। स्वर-कार्य 'गवा' के समान है।