Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
षष्टाध्यायस्य द्वितीयः पादः
२३१ प्रकृतिस्वर:
(७) पदेऽपदेशे। प०वि०-पदे ७१ अपदेशे ७।१। अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदम्, तत्पुरुषे इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्पुरुषेऽपदेशे पदे पूर्ववदं प्रकृत्या।
अर्थ:-तत्पुरुषे समासेऽपदेशवाचिनि पद-शब्दे उत्तरपदे परत: पूर्वपदं प्रकृतिस्वरं भवति।
उदा०-मूत्रं च तत् पदम्-मूत्रपदम्। मूत्रपदेन प्रस्थित: । उच्चारं च तत् पदम्-उच्चारपदम्। उच्चारपदन प्रस्थित: । अपदेश: व्याज: । मूत्रव्याजेन, उच्चारव्याजेन वा गत इत्यर्थ: । उच्चार:=मलत्यागः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्पुरुषे) तत्पुरुष समास में (अपदेशे) अपदेश व्याज (बहाना) वाची (पदे) पद शब्द उत्तरपद होने पर (पूर्वपदम्) पूर्वपद (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहता है।
उदा०-मूत्रपदेन प्रस्थित: । लघुशंका के बहाने से चला गया। उच्चारपदेन प्रस्थितः । मलत्याग (शौच) के बहाने से चला गया।
सिद्धि-(१) मूत्रपदम् । मूत्र+सु+पद+सु । मूत्रपद+सु। मूत्रपदम्।
यहां मूत्र और अपदेशवाची पद शब्दों का 'मयूरव्यंसकादयश्च' (२।१।७१) से कर्मधारय तत्पुरुष समास है। इस सूत्र से अपदेशवाची 'पद' शब्द उत्तरपद होने पर मूत्र' पूर्वपद प्रकृतिस्वर से रहता है। मूत्र' शब्द सिविमुच्योष्टेरू च' (उणा० ४।१६३) से ष्ट्रन्-प्रत्ययान्त होने से नित्स्वर से आधुदात्त है।
(२) उच्चारपदम् । यहां उच्चार और अपदेशवाची पद शब्दों का पूर्ववत् कर्मधारय तत्पुरुष समास है। इस सूत्र से अपदेशवाची पद' शब्द उत्तरपद होने पर उच्चार' पूर्वपद प्रकृतिस्वर से रहता है। उच्चार' शब्द घञ्-प्रत्ययान्त होने से 'थाथघक्त०' (६।२।१४३) से अन्तोदात्त है। प्रकृतिस्वर:
(८) निवाते वातत्राणे।८। प०वि०-निवाते ७११ वातत्राणे ७।१।
स०-वातस्याभाव:-निवातम्, तस्मिन्-निवाते। 'अव्ययं विभक्ति०' (२।२।६) इत्यर्थाभावेऽव्ययीभावः । अथवा-निरुद्धो वातो यस्मिन् स: