Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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प्रकृतिस्वरः
पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
(५०) तादौ च निति कृत्यतौ । ५० । प०वि०-त-आदौ ७ ।१ च अव्ययपदम्, निति ७।१ कृति ७ । १
अतौ ७ । १ ।
स०-त आदिर्यस्य स तादि:, तस्मिन् - तादौ ( बहुव्रीहि: ) । न इद् यस्य स नित्, तस्मिन्-निति । न तुरिति अतु:, तस्मिन् - अतौ ( नञ्तत्पुरुषः ) । अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदम्, गति:, अनन्तर इति चानुवर्तते । अन्वयः - अतौ तादौ निति कृति चानन्तरो गति: पूर्वपदं प्रकृत्या । अर्थ::-तुशब्द-वर्जिते तकारादौ निति कृति च प्रत्यये परतोऽनन्तरो गतिः पूर्वपदं प्रकृतिस्वरं भवति ।
उदा० प्रकर्षेण कर्ता इति प्रक॑र्ता । प्रक॑र्तुम् । प्रकृतिः ।
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आर्यभाषाः अर्थ- (अतौ) तु शब्द से भिन्न (तादौ ) तकार - आदि (निति) नित् (कृति) कृत्-संज्ञक प्रत्यय परे होने पर (च) भी (अनन्तरः ) अव्यवहित (गतिः) गति-संज्ञक (पूर्वपदम् ) पूर्वपद (प्रकृत्या ) प्रकृतिस्वर से रहता है ।
उदा० - प्रकेर्ता । प्रकृष्ट कर्ता । प्रकर्तुम् । प्रकृष्ट करने के लिये । प्रकृतिः । प्रकृष्ट कृति । सिद्धि- (१) प्रकेर्ता । यहां 'प्र' और 'कर्तृ' शब्दों का 'कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) गति- समास है । 'कर्तृ' शब्द में 'डुकृञ् करणे' (तना० उ०) धातु से 'तृन्' (३ । २ । १३५ ) से तच्छील आदि अर्थों में तृन् प्रत्यय है । यह तकारादि, नित् कृत् है । इसके उत्तरपद होने पर गति - संज्ञक 'प्र' पूर्वपद इस सूत्र से प्रकृतिस्वर से रहता है। 'प्र' शब्द 'उपसर्गाश्चाभिवर्जम् (फिट्० ४।१३) से आद्युदात्त है। यहां 'गतिकारकोपदात् कृत्' (६ / २ /३९ ) से कृत्-स्वर प्राप्त था, उसका यह बाधक है।
(२) प्रकेर्तुम् । यहां 'प्र' और 'कर्तुम्' शब्दों का पूर्ववत् गतिसमास है । 'कर्तुम्' शब्द में 'कृ' धातु से 'तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् (३ । ३ । १०) से तुमुन् प्रत्यय है। यह तकारादि नित् कृत् है। इसके उत्तरपद होने पर गति-संज्ञक 'प्र' पूर्वपद इस सूत्र से प्रकृतिस्वर से रहता है।
(३) प्रकृति: । यहां 'प्र' और 'कृति' शब्दों का पूर्ववत् गतिसमास है । कृति शब्द में 'कृ' धातु से 'स्त्रियां क्तिन्' (३ । ३ । ) से क्तिन्' प्रत्यय है । यह तकारादि, नित् कृत् है। इसके उत्तरपद होने पर गति - संज्ञक 'प्र' पूर्वपद प्रकृतिस्वर से रहता है।
यहां 'अतौ' का कथन इसलिये किया गया है कि यहां गति पूर्वपद प्रकृतिस्वर से न हो - आगन्तुः । यहां 'सितनिगमि०' (उणा० १।६९) से तुन्' प्रत्यय है। यहां 'गतिकारकोपदात् कृत्' (६ । २ ।१३८) से कृत्-स्वर (आद्युदात्त) होता है।