Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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षष्टाध्यायस्य द्वितीयः पादः आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (संख्यायाः) संख्यावाची शब्द से परे (स्तनः) स्तन-शब्द (उत्तरपदम्) उत्तरपद में (विभाषा) विकल्प से (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होता है।
उदा०-द्विस्तनां कुर्याद् वामदेव: । द्विस्तनां करोति द्यावापृथिव्योर्दोहाय चतुःस्तनां करोति । पशूनां दोहाय (तै०सं० ५।१।६।४) । चतुःस्तनां करोति ।
सिद्धि-(१) द्विस्तना। यहां द्वि और स्तन शब्दों का अनेकमन्यपदार्थे (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से वेदविषय में तथा बहुव्रीहि समास में संख्यावाची द्वि-शब्द से परे स्तन' शब्द उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। विकल्प पक्ष में बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्' (६।२।१) से पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है। द्वि' शब्द फिषोऽन्तोदात्त:' (१।१।१) से अन्तोदत्त है-द्विस्तना।
(२) चतुःस्तना। यहां चतुर् और स्तन शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। चतुर्-शब्द में ‘चतेरुरन्' (उणा० ५ ।५८) से उरन् प्रत्यय है। अत: यह प्रत्यय के नित् होने से 'नित्यादिर्नित्यम्' (६ ।१ ।१९७) से आधुदात्त है। शेष कार्य पूर्ववत् है। अन्तोदात्तम्
(२३) संज्ञायां मित्राजिनयोः ।१६५ । प०वि०-संज्ञायाम् ७।१ मित्र-अजिनयो: ६ ।२ ।
सo-मित्रं च अजिनं च ते मित्राजिने, तयो:-मित्राजिनयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-उदात्त:, उत्तरपदम्, अन्त:, बहुव्रीहाविति चानुवर्तते । अन्वय:-संज्ञायां बहुव्रीहौ मित्राजिनयोरुत्तरपदम् अन्त उदात्त: ।
अर्थ:-संज्ञायां विषये बहुव्रीहौ समासे मित्राजिनयोरुत्तरपदयोरन्तोदात्तो भवति।
उदा०-(मित्रम्) देवो मित्रं यस्य स:-देवमित्रः । ब्रह्ममित्रः । (अजिनम्) वृकमजिनं यस्य स:-वृकाजिनः । कूलाजिनः । कृष्णाजिनः ।
आर्यभाषा: अर्थ- (संज्ञायाम्) संज्ञाविषय में तथा (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (मित्राजिनयो:) मित्र और अजिन (उत्तरपदम्) उत्तरपदों को (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होता है।
उदा०-(मित्र) देवमित्रः । देव है मित्र जिसका वह पुरुष । ब्रह्ममित्रः । ब्रह्मा है मित्र जिसका वह पुरुष । (अजिन) वृकाजिनः । वृक=भेड़िये का चर्म है आच्छादन जिसका वह