Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः
४०६ अनु०-उदात्त:, उत्तरपदम्, अन्त:, समासे, तत्पुरुषे इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्पुरुष समासे उत्पुच्छे उत्तरपदं विभाषाऽन्त उदात्त:।
अर्थ:-तत्पुरुष समासे उत्पुच्छे शब्दे वर्तमानम् उत्तरपदं विकल्पेनान्तोदात्तं भवति।
उदा०-उत्क्रान्त: पुच्छादिति उत्पुच्छ: । उत्पुच्छः ।
“यदा तु पुच्छमुदस्यति-उत्पुच्छयति, उत्पुच्छयतेरच् उत्पुच्छ:, तदा थाथादिसूत्रेण नित्यमन्तोदात्तत्वे प्राप्ते विकल्पोऽयमिति सेयमुभयत्रविभाषा भवति" (काशिका)।
आर्यभाषाअर्थ-(तत्पुरुषे) तत्पुरुष (समासे) समास में (उत्पुच्छे) उत्पुच्छ-शब्द में विद्यमान (उत्तरपदम्) उत्तरपद को (विभाषा) विकल्प से (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होता है।
उदा०-उत्पुच्छ: । उत्युच्छ;। पूछ से उठा हुआ (पशु)। ।
सिद्धि-उत्पुच्छः । यहां उत् और पुच्छ शब्दों का 'कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से प्रादितत्पुरुष समास है। इस सूत्र से इस तत्पुरुष समास में उत्पुच्छ शब्द में विद्यमान पुच्छ उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। यहां किसी सूत्र से अन्तोदात्त स्वर प्राप्त नहीं था।
यहां विकल्प पक्ष में तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्या:' (६।२।२) से पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है।
“और जब 'पुच्छभाण्डचीवराण्णि' (३।१ ।२०) से णिडन्त उत्पुच्छ' धातु से नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः' (३।१।१३४) से अच् प्रत्यय करने पर उत्पुच्छ:' शब्द सिद्ध किया जाता है तब 'थाथघक्ताजबित्रकाणाम् (६।२।१४४) से अनतोदात्त स्वर प्राप्त था। इस प्रकार प्राप्त और अप्राप्त होने से यह उभयत्र विभाषा है" (काशिका)। अन्तोदात्तविकल्प:
(५५) द्वित्रिभ्यां पाद्दन्मूर्धसु बहुव्रीहौ ।१६७ । प०वि०-द्वित्रिभ्याम् ५ ।२ पाद्-दन्-मूर्धसु ७।३ बहुव्रीहौ ७।१।
स०-द्विश्च त्रिश्च तौ द्वित्री, ताभ्याम्-द्वित्रिभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । पाच्च दच्च मूर्धा च ते पाद्दन्मूर्धान:, तेषु-पादनमूर्धसु (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु०-उदात्त:, उत्तरपदम्, अन्त:, समासे, विभाषा इति चानुवर्तते ।
अन्वय:-बहुव्रीहौ समासे द्वित्रिभ्यां पाद्दनमूर्धसु उत्तरपदं विभाषा अन्त उदात्त:।