Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः अन्वयः-तदर्थे चतुर्थी पूर्वपदं प्रकृत्या। अर्थ:-तदर्थे उत्तरपदे चतुर्थ्यन्तं पूर्वपदं प्रकृतिस्वरं भवति ।
उदा०-यूपाय दारु इति यूपदारु। कुण्डलाय हिरण्यमिति कुण्डलहिरण्यम् । रथाय दारु इति रथदारु । वल्ल्यै हिरण्यमिति वल्लीहिरण्यम् । __ आर्यभाषा: अर्थ-(तदर्थे) उस चतुर्थ्यन्त के अभिधेयवाची उत्तरपद होने पर (चतुर्थी) चतुर्थी-अन्त (पूर्वपदम्) पूर्वपद (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहता है। ___ उदा०-यूपदारु । यज्ञ-स्तम्भ के लिये लकड़ी। कुण्डलहिरण्यम् । कुण्डल के लिये सुवर्ण। रथदारु । रथ के लिये लकड़ी। वल्लीहिरण्यम् । बाळी के लिये सुवर्ण ।
सिद्धि-(१) यूपदारु । यहां यूप और दारु शब्दों का चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः' (२।११३५) से चतुर्थी तत्पुरुष समास है। यूप' शब्द में कुयुभ्यां च' (उणा० ३।२७) से 'प' प्रत्यय है और यहां स्तुवो दीर्घश्च' (उणा० ३।२५) से दीर्घ की तथा सुशभ्यां निच्च (उणा० ३ (२६) से नित् की अनुवृत्ति है। अत: प्रत्यय के नित् होने से यह नित्यादिर्नित्यम् (६।१।१९१) से आधुदात्त है। यह इस सूत्र से तदर्थवाची दारु शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है।
(२) कुण्डलहिरण्यम् । यहां कुण्डल और हिरण्य शब्दों का पूर्ववत् चतुर्थी तत्पुरुष समास है। कुण्डल' शब्द में वृषादिभ्यश्चित् (उणा० १।१०६) से आकृतिगण से कल प्रत्यय और वह चित् है। प्रत्यय के चित् होने से चित:' (६।१।१५८) से अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से तदर्थवाची हिरण्य शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है।
(३) रथदारु । यहां रथ और दारु शब्दों का पूर्ववत् चतुर्थी तत्पुरुष समास है। 'रथ' शब्द में हनिकुषिनीरमिकाशिभ्य: क्थन् (उणा० २।२) से क्थन्' प्रत्यय है। प्रत्यय के नित् होने से यह 'जित्यादिनित्यम्' (६।१।१९१) से आधुदात्त है। यह इस सूत्र से तदर्थवाची दारु शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है।
(४) वल्लीहिरण्यम् । यहां वल्ली और हिरण्य शब्दों का पूर्ववत् चतुर्थी तत्पुरुष समास है। 'वल्ली' शब्द में 'षिद्गौरादिभ्यश्च' (४।१।४१) से डीष् प्रत्यय है। अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से तदर्थवाची हिरण्य शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। प्रकृतिस्वर:
(४४) अर्थे ।४४। प०वि०-अर्थे ७।१। अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदम्, चतुर्थी इति चानुवर्तते।