Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः
२७५ उदा०-गोहितम् । गौ के लिये हितकारी। अश्वहितम् । घोड़े के लिये हितकारी। मनुष्यहितम् । मनुष्य के लिये हितकारी। गोरक्षितम् । गौ के लिये रखा हुआ। अश्वरक्षितम् । घोड़े के लिये रखा हुआ। वनं तापसरक्षितम् । तपस्वियों के लिये रखा हुआ वन।
सिद्धि-(१) गोहितम् । यहां गो और क्त-प्रत्ययान्त हित शब्दों का चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः' (२।१।३५) से चतुर्थीतत्पुरुष समास है। 'गो शब्द अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से क्तान्त हित शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। ऐसे ही-गोरक्षितम्।
(२) अश्वहितम् । यहां अश्व और हित शब्दों का पूर्ववत् चतुर्थी तत्पुरुष समास है। अश्व शब्द आधुदात्त है। यह इस सूत्र से क्तान्त हित शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। ऐसे ही-अश्वरक्षितम् ।
(३) मनुष्यहितम् । यहां मनुष्य और हित शब्दों का पूर्ववत् चतुर्थी तत्पुरुष समास है। मनुष्य शब्द में 'मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च' (४।१।६१) से यत् प्रत्यय है। प्रत्यय के तित् होने से यह तित् स्वरितम् (६।१।१७९) से अन्तस्वरित है। यह इस सूत्र से क्तान्त हित शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है।
(४) तापसरक्षितम् । यहां तापस और क्तान्त रक्षित शब्दों का पूर्ववत् चतुर्थी तत्पुरुष समास है। तापस शब्द में तपःसहस्राभ्यां विनीनी (५।२।१०२) की अनुवृत्ति में 'अण् च' (५।२।१०३) से अण्-प्रत्यय है। अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से क्तान्त रक्षित शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। प्रकृतिस्वरः
(४६) कर्मधारयेऽनिष्ठा।४६। प०वि०-कर्मधारये ७।१ अनिष्ठा १।१।
स०-न निष्ठेति अनिष्ठा (नञ्तत्पुरुषः)। ‘क्तक्तवतू निष्ठा' (१।१।२५) इति निष्ठा संज्ञा विहिता।
अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदम्, क्ते इति चानुवर्तते। अन्वय:-कर्मधारये क्तेऽनिष्ठा पूर्वपदं प्रकृत्या।
अर्थ:-कर्मधारये समासे क्तान्ते शब्दे उत्तरपदेऽनिष्ठान्तं पूर्वपदं प्रकृतिस्वरं भवति।
उदा०-अश्रेणय: श्रेणय: कृता इति श्रेणिकृता: । ओककृता: । पूगकृताः । निधनकृताः।