Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
(६) च॒क्रब॑न्धः। यहां चक्र और बन्ध शब्दों का पूर्ववत् सप्तमीतत्पुरुष समास है। 'चक्र' शब्द 'डुकृञ् करणे' (तना० उ० ) धातु से 'क' प्रत्यय और वा०- कृञादीनां केद्वे भवत: ' ( ६ |१|१२) से द्वित्व होकर सिद्ध होता है । अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से 'बन्ध' शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है ।
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(७) चारेकबन्ध: । यहां चारक और बन्ध शब्दों का पूर्ववत् सप्तमीतत्पुरुष समास है । 'चारक' शब्द 'चर गतिभक्षणयो:' (भ्वा०प०) धातु से 'ण्वुल्तृचौ (३ 1१ ।१३३) से 'ण्वुल्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है । प्रत्यय के लित् होने से 'लिति' (६ 1१1१८७) से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् होता है। अत: यह इस सूत्र से बन्ध शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है।
'अकालात्' के कथन से यहां प्रकृतिस्वर नहीं होता है-पूर्वाह्णसिद्धः । अपराह्णसिद्धः । यहां 'समासस्य' (६ |१| २१७ ) से अन्तोदात्त स्वर होता है । 'सांकाश्यसिद्ध:' आदि में 'गतिकारकोपपदात् कृत्' (६ । २ । १९३९) से कृदन्त उत्तरपद को प्रकृतिस्वर प्राप्त था, अत: यह कथन किया गया है।
विशेष: (१) सांकाश्य - फर्रुखाबाद जिले में इक्षुमती ( वर्तमान ईखन ) नदी के किनारे वर्तमान नाम संकिसा है, जहां अशोककालीन स्तम्भ के चिह्न मिले हैं (पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ८७)।
(२) काम्पिल्य- संकाश आदिगण में काम्पिल्य का पाठ है, जो फर्रुखाबाद जिले की कायमगंज तहसील में वर्तमान नाम कम्पिल है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ८७) ।
प्रकृतिस्वरः
(३३) परिप्रत्युपापा वर्ज्यमानाहोरात्रावयवेषु । ३३ । प०वि०-परि-प्रति-उप-अपा: १ । ३ वर्ज्यमान- अहोरात्रावयवेषु ७ । ३ ।
स०-परिश्च प्रतिश्च उपश्च अपश्च ते - परिप्रत्युपापा: (इतरेतरयोगद्वन्द्व : ) । अहश्च रात्रिश्च तौ - अहोरात्रौ तयो: - अहोरात्रयोः, अहोरात्रयोरवायवा :- अहोरात्रावयवाः, वर्ज्यमानं च अहोरात्रावयवाश्च ते-वर्ज्यमानाहोरात्रावयवा:, तेषु - वर्ज्यमानाहोरात्रावयवेषु (षष्ठीतत्पुरुषगर्भित इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदमिति चानुवर्तते ।
अन्वयः - {अव्ययीभावे} वर्ज्यमानाहोरात्रावयवेषु परिप्रत्युपापा पूर्वपदं
प्रकृत्या ।