Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) उप्तम् । वप्+क्त। वप्+त। उ अ +त। उप्+त। उप्त+सु। उप्तम्।
यहां 'डुवप् बीजसन्ताने छेदने च' (भ्वा०उ०) धातु से पूर्ववत् क्त प्रत्यय है। पूर्ववत् 'वप्' के वकार को सम्प्रसारण (उ) होता है। इस सूत्र से सम्प्रसारण (उ) से उत्तर अच् वर्ण (अ) परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में पूर्वरूप (उ) एकादेश होता है।
(३) गृहीतम् । ग्रह+क्त। ग्रह+त। ग् ऋ अ +त। गृह+इट्+त । गृह+ई+त। गृहीत+सु । गृहीतम्।
यहां 'ग्रह उपादाने (क्रया०उ०) धातु से पूर्ववत् क्त' प्रत्यय है। 'अहिज्यावयि०' (६।१।१६) से ग्रह' के रेफ को सम्प्रसारण (ऋ) होता है। इस सूत्र से सम्प्रसारण (ऋ) से उत्तर अच् वर्ण (अ) परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में पूर्वरूप (ऋ) एकादेश होता है।
'इग्यण: सम्प्रसारणम्' (१।१।४४) से यण के स्थान में भूत और भावी इक् की सम्प्रसारण संज्ञा होती है। पूर्वरूप-एकादेश:
(३७) एङः पदान्तादति।१०८ । प०वि०-एङ: ५।१ पदान्तात् ५।१ अति ७।१। स०-पदस्यान्त: पदान्त:, तस्मात्-पदान्तात् (षष्ठीतत्पुरुषः) । अनु०-संहितायाम्, एक:, पूर्वपरयोः, पूर्व इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायां पदान्ताद् एडोऽति पूर्वपरयो: पूर्व एकः ।
अर्थ:-संहितायां विषये पदान्ताद् एड उत्तरस्माद् अति परत: पूर्वपरयो: स्थाने पूर्वरूप एकादेशो भवति ।
उदा०-अग्नेऽत्र। वायोऽत्र।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि-विषय में (पदान्तात्) पदान्त (एड:) एड्-वर्ण से उत्तर (अति) अ-वर्ण परे होने पर (पूर्वपरयो:) पूर्व-पर के स्थान में (पूर्व:) पूर्वरूप (एक:) एकादेश होता है।
उदा०-अग्नेऽत्र । हे आने ! यहां (आ)। वायोऽत्र । हे वायो ! यहां (आ)। सिद्धि-अग्नेऽत्र । आने+अत्र । आनेऽत्र।
यहां अग्ने शब्द के पदान्त एड् वर्ण (ए) से उत्तर अ-वर्ण परे होने पर इस सूत्र से पूर्व-पर के स्थान में पूर्वरूप (ए) एकादेश होता है। यहां 'एचोऽयवायाव:' (६।१।७६) से 'अय्' आदेश प्राप्त था, यह उसका अपवाद है। ऐसे ही-वायोऽत्र ।