Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः
१७३ आर्यभाषा: अर्थ:-(अन्तोदात्तात्) अन्तोदात्त (अनुम्) नुम्-आगम से रहित (शतुः) शतृ-प्रत्ययान्त शब्द से उत्तर (नदी) नदी-संज्ञक प्रत्यय और (असर्वनामस्थानम्) सर्वनामस्थान से भिन्न (अजादि:) अजादि (विभक्तिः) विभक्ति (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होती है। ____उदा०-(नदी) तुदती। पीड़ा देती हुई। नुदती । प्रेरणा करती हुई। लुनती। काटती हुई। पुनती। पवित्र करती हुई। (अजादि विभक्ति) तुदता । पीड़ा देते हुये के द्वारा। नुदता । प्रेरणा करते हुये के द्वारा । लुनता । काटते हुये के द्वारा । पुनता । पवित्र करते हुये के द्वारा।
सिद्धि-(१) तुदती। तुद्+लट् । तुद्+शतृ । तुद्+श+अत् । तुद्+अ+अत् । तुदत्+डी । तुदत्+ई। तुदती+सु । तुदती।
यहां अन्तोदात्त, नुम-आगमरहित, शतृ-प्रत्ययन्त तुदत्' शब्द से उगितश्च' (४।१।६) नदी-संज्ञक 'डीप्' प्रत्यय है। यू स्त्र्याख्यौ नदी' (१।४।३) से 'डीप्' की नदी संज्ञा है। इस सूत्र से यह प्रत्यय अन्तोदात्त होता है। अनुदात्तौ सुपितौ' (३।१।४) से इसे अनुदात्त स्वर प्राप्त था।
(२) नुदती। 'णुद प्रेरणे (तु०प०) धातु से पूर्ववत् ।
(३) लुनती। लू छेदने (क्रया उ०) धातु से पूर्ववत् शतृ प्रत्यय, क्रयादिभ्यः शना' (३।११८१) से श्ना' विकरण-प्रत्यय और 'श्नाभ्यस्तयोरात:' (६।४।११२) से 'श्ना' के आकार का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(४) पुनती। 'पू पवनें' (क्रयाउ०) धातु से पूर्ववत्। (५) तुदता । तुदत्+टा। तुदत्+आ। तुदता।
यहां पूर्वोक्त तुदत्' शब्द से असर्वनामस्थान अजादि 'टा' प्रत्यय विभक्ति) है। इस सूत्र से इसे अन्तोदात्त होता है। 'अनुदात्तौ सुपितौ' (३।१।४) से अनुदात्त स्वर प्राप्त था।
(६) नुदता। 'णुद प्रेरणे' (तु०प०) धातु से पूर्ववत् । (७) लुनता। 'लून छेदने (क्रया उ०) धातु से पूर्ववत् ।
(८) पुनता । 'पून पवने (क्रया उ०) धातु से पूर्ववत् । अन्तोदात्ता
(१७) उदात्तयणो हलपूर्वात् ।१७१। प०वि०-उदात्तयण: ५।१ हलपूर्वात् ५।१।
स०-उदात्तस्य यण-उदात्तयण, तस्मात्-उदात्तयण: (षष्ठीतत्पुरुषः)। हल् पूर्वो यस्मात् स हलपूर्वः, तस्मात्-हलपूर्वात् (बहुव्रीहिः)।