Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः । यहां ह्रस्वान्त, अन्तोदात्त 'अग्नि' शब्द से तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप' (५ ।२।९४) से मतुप्' प्रत्यय है। यह अनुदात्तौ सुपितौ' (३।१।४) से अनुदात्त है। इस सूत्र से इसे अन्तोदात्त होता है। उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो:' (७/१:७०) से नुम् आगम, संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) से तकार का लोप, सर्वना स्थाने चासम्बुद्धौं' (६।४।८) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ हङ्याब्भ्यो दीर्घात् ।। (६।१।६६) से सु' का लोप होता है। ऐसे ही-वायुमान्, कर्तृमान्, हर्तमान् ।
(२) अक्षण्वता । अक्ष+मतुम्। अक्ष् अनङ्+मत्। अक्षन्+नुट्+मत । अक्षन्+न् वत्। अक्ष+न वत् । अक्षणवत्+टा। अक्षण्वत्+आ। अक्षणवता।
- यहां 'अक्ष' शब्द से पूर्ववत् मतुप्' प्रत्यय है। छन्दस्यपि दृश्यते (६।४।७३) अक्ष के अकार को 'अनङ्' आदेश और 'अनो नुट्' (८।२।१६) से 'मतुप्' को 'नुट्' आगम, नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८१२७) से पूर्व नकार का लोप होता है। झयः' (८।२।१०) से मतुप्’ के मकार को वकार आदेश होता है। इस सूत्र से नुट्’ से उत्तर मतुप्' प्रत्यय को अन्तोदात्त होता है। 'अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से नकार को णत्व होता है।
(३) शीर्षण्वतो । यहां शिरः' शब्द के स्थान में शीर्षश्छन्दसि' (६।१।५९) से शीर्षन्' आदेश निपातित है। शेष कार्य पूर्ववत् है। अन्तोदात्त-विकल्प:
(२०) नामन्यतरस्याम् ।१७४। प०वि०-नाम् ११ अन्यतरस्याम् १।१। अनु०-अन्त:, उदात्त:, अन्तोदात्तात्, विभक्तिः, मतुप् इति चानुवर्तते ।
अन्वय:-मतुपि ह्रस्वाद् अन्तोदात्ताद् नाम्-विभक्तिरन्यतरस्याम् अन्तोदात्ता।
अर्थ:-मतुपि यो ह्रस्वस्तदन्ताद् अन्तोदात्ताद् उत्तरा नाम्-विभक्तिविकल्पेनान्तोदात्ता भवति।
उदा०-अग्नीनाम्, अग्नीनाम्। वायूनाम्, वायूनाम्। कर्तृणाम्, कर्तृणाम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(मतुपि) मतुप् प्रत्यय परे होने पर जो (हस्वात्) ह्रस्व है, उस ह्रस्वान्त (अन्तोदात्तात्) अन्तोदात्त शब्द से उत्तर (नाम्) नाम् (विभक्तिः) विभक्ति (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होती है।
उदा०-अग्नीनाम्, अग्नीनाम् । सब अग्नियों का। वायूनाम्, वायूनाम् । सब वायुओं का। कर्तृणाम्, कर्तृणाम् । सब कर्ताओं का।